हृदय (महाभारत संदर्भ)

  • न तु केनचिदत्यंतं कस्यचिद्हृदयं क्वचिद् वेदितुं शक्यते।[1]

कोई किसी दूसरे के हृदय को कभी पूर्णरूप से नहीं जान सकता।

  • क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोतिष्ठा।[2]

हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर खड़े हो।

  • हृदयं प्रियाप्रिये वेद।[3]

प्रिय और अप्रिय को हृदय जानता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विराटपर्व महाभारत 24.25
  2. भीष्मपर्व महाभारत 26.3
  3. शांतिपर्व महाभारत 248.1

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