भोजन (महाभारत संदर्भ)

  • तुल्यं चान्नं सह भोज्यं सहायै। [1]

मित्रों के साथ एक जैसा भोजन करना चाहिये।

  • फलशाकमपि श्रेयो भोक्तुं ह्यकृपणं गृहे। [2]

स्वाभिमान से अपने घर में फल या शाक खाना भी अच्छा है।

  • श्ववत् कीलालपो यस्तु परांनं भोक्तुमिच्छति। [3]

जो पराया अन्न खाना चाहता है वह कुत्ते की भाँति खून पीता है।

  • सम्प्रीतिभोज्यांयन्नाति आपद्भोज्यानि वा पुन:। [4]

किसी के घर भोजन या तो प्रेमवश किया जाता है या आपत्ति में।

  • स्थावरं जड़्गमं चैव सर्वे प्राणस्य भोजनम्। [5]

स्थावर और जंगम (जड़-चेतन) सारा जगत् प्राणियों का भोजन है।

  • मृष्टं भुञ्ञीत नाहितम्। [6]

स्वादिष्ट भोजन करे परंतु अहितकर नहीं।

  • न निंद्यादन्नभक्ष्यांश्च स्वाद्वस्वादु च भक्षयेत्। [7]

भोजन की वस्तु की निंदा न करें, स्वाद हो या न हो प्रेम से खायें।

  • समानमेकपड़्क्त्यां तु भोज्यमन्नम्।[8]

एक पंक्ति में सबको समान भोजन खाना चाहिये।

  • विषं हालाहलं भुड़क्ते योप्रदाय सुहृज्जने। [9]

सुहृद्जनों को न देकर अकेला ही खाने वाला हालाहल विष ही खाता है।

  • भुक्ते परिजने पश्चाद् भोजनं धर्म उच्यते। [10]

सेवकों के भोजन करने के पश्चात् स्वयं खाना धर्म कहा गया है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वनपर्व महाभारत5.21
  2. वनपर्व महाभारत193.30
  3. वनपर्व महाभारत193.31
  4. उद्योगपर्व महाभारत91.25
  5. शांतिपर्व महाभारत10.6
  6. शांतिपर्व महाभारत70.8
  7. शांतिपर्व महाभारत193.6
  8. अनुशासनपर्व महाभारत104.97
  9. अनुशासनपर्व महाभारत104.97
  10. अनुशासनपर्व महाभारत141.42

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः