धार्मिक (महाभारत संदर्भ)

  • व्यसनमेव ह्मेव धर्मस्य धर्मिणामपुदुच्यते। [1]

धर्म का पालन न कर पाने को ही धार्मिक लोग संकट कहते हैं[2]

  • भवन्ति हि नरव्याघ्र पुरुषा धर्मचेतस: दीनाभिपातिन:।[3]

नरश्रेष्ठ! धर्मात्मा जन दीन लोगों का अधिक ध्यान रखते है।

  • धर्मात्मा हि सुखं राजन् प्रेत्य चेह च नंदति।[4]

राजन्! धर्मात्मा इस लोक और परलोक में आनंद में रहता है।

  • धर्मनित्यास्तु ये केचिन्न ते सीदंति कर्हिचित्।[5]

जो सदा धर्म में तत्पर रहते हैं वे कभी कष्ट नहीं पाते।

  • अधर्मो धर्मातां याति स्वामी चेद् धार्मिको भवेत्।[6]

राजा यदि धार्मिक है तो अधार्मिक लोग भी धार्मिक बन जाते है।

  • न चार्थबद्ध: कर्माणि धर्मवान् कश्चिदाचरेत्।[7]

धार्मिक व्यक्ति धन के लोभ में धर्म का कार्य न करे।

  • अपापवादी भवति यदा भवति धर्मकृत्।[8]

धार्मिक मनुष्य (संकट में भी) पाप पक्ष में नहीं बोलता।

  • न देवैरननुज्ञात: कश्चिद् भवति धार्मिक:।[9]

देवताओं की अनुमति के बिना कोई धार्मिक नहीं हो सकता।

  • धार्मिकान् पूजयन्तीह न धनाढ्यान् न कामिन:।[10]

संसार में धार्मिकों की पूजा होती है धनवानों और होगियों की नहीं।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आदिपर्व महाभारत 154.14
  2. कह हनुमंत बिपति प्रभु सोईं। जब तव सुमिरन भजन न होईं॥
  3. वनपर्व महाभारत 6.23
  4. वनपर्व महाभारत 191.19
  5. वनपर्व महाभारत 263.44
  6. स्त्रीपर्व महाभारत 8.33
  7. शांतिपर्व महाभारत 243.22
  8. शांतिपर्व महाभारत 259.6
  9. शांतिपर्व महाभारत 271.49
  10. शांतिपर्व महाभारत 271.55

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