- बलं धर्मोऽनुवर्वते।[1]
धर्म बल का अनुसरण करता है।
- बलं च दाक्ष्यं च संश्रय।[2]
शारीरिक बल और बौद्धिक बल का आश्रय लो।
- बुध्यस्व बलमात्मन:।[3]
अपनी शक्ति को पहचानो।
- न तद् बलं यन्मृदुना विरुध्यते।[4]
वह बल क्या बल है जिसका मृदु मनुष्य (सज्जन) से विरोध हो।
- यद् बलानां बलं श्रेष्ठं तत् प्रज्ञाबलमुच्यते।[5]
बुद्धि का बल सभी बलों में श्रेष्ठ कहलाता है।
- बुभूषेद् बलमेवैतत्।[6]
बल पाने की ही इच्छा करें।
- अतिधर्माद् बलं मन्ये बलाद् धर्म: प्रवर्तते।[7]
धर्म से बल को अच्छा मानता हूँ, बल से ही धर्म निर्धारित होता है।
- बले प्रतिष्ठितो धर्मौ धरण्यामिव जड्ग़मम्।[8]
जैसे प्राणी भूमि पर प्रतिष्ठित हैं, वैसे ही धर्म बल निर्धारित होता है।
- धूमो वायोरिव वशे बलं धर्मोऽनुर्वते।[9]
जैसे धुआँ वायु का अनुसरण करता है वैसे ही धर्म बल का।
- अनीश्वरो बले धर्मो द्रुमे वल्लीव संश्रिता।[10]
धर्म उसी प्रकार बल के आश्रय में स्थित है जैसे लता वृक्ष के।
- विपक्वबुद्धि: कालेन आदत्ते मानसं बलम्।[11]
परिपक्वबुद्धि वाला समय आने पर मानसिक बल पा लेता है।
- बलेन किं येन रिपुं न बाधते।[12]
वह बल भी किस काम का जो शत्रु को रोकने के काम न आये।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 135.19
- ↑ वनपर्व महाभारत 140.2
- ↑ विराटपर्व महाभारत 29.9
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 36.71
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 37.55
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 134.3
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 134.6
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 134.6
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 134.7
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 134.7
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 214.28
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 321.93
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