- मित्रममित्रं वा परीक्षंते बुधा।[1]
ज्ञानी मित्र और शत्रु की परीक्षा करते हैं।
- प्रत्यक्षदृष्टोवऽपि युक्तों ह्मर्थ: परीक्षतुम्।[2]
सामने दिखाई देने वाली वस्तु की भी परीक्षा करना उचित है।
- नापरीक्ष्य च विश्वसेद्।[3]
बिना परीक्षा के किसी पर विश्वास न करें।
- परीक्ष्य संचरेद् विद्वान् यथावच्छास्त्रचक्षुषा।[4]
विद्वान् शास्त्र के अनुसार परीक्षा करके यथोचित आचरण करें।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शल्यपर्व महाभारत 6.25
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 111.67
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 140.43
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 213.20
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