- न च प्रसाद: सत्पुरुषेषु मोघ:।[1]
सत्पुरुषों का प्रसाद कभी व्यर्थ नहीं जाता।
- विर्वजनं ह्यकार्याणामेतत् सुपुरुषव्रतम्।[2]
अनुचित कार्य को त्याग देना ही सज्जनों का व्रत होता है।
- पूर्वं चाभिगतं सन्तो भजंते पूर्वसारिण:।[3]
सज्जन पहले आये हुए प्रार्थी की सहायता करते हैं।
- संतं न जिघांसेत।[4]
संत को मारने की इच्छा न करे।
- गतिरात्मावतां संत:।[5]
संत मनस्वी लोगों को आश्रय देते है।
- संत एव सतां गति:।[6]
संतो को भी आश्रय संत ही देते हैं।
- असतां च गति: संतो न त्वसंत: सतां गति:।[7]
संत दुर्जनों को आश्रय देते हैं परंतु दुर्जन संतों को आश्रय नहीं देते ।
- अलं प्रसन्ना हि सुखाय संत:।[8]
जिस पर संत प्रसन्न है वह सुखी रहता है।
- धर्मार्थयुक्ता लोकोऽस्मिन् प्रवृत्तिर्लक्ष्यते सताम्।[9]
संसार में सज्जनों का व्यवहार धर्म और अर्थ से युक्त देखा जाता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वनपर्व महाभारत 297.50
- ↑ विराटपर्व महाभारत 14.36
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 7.14
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 10.24
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 34.46
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 34.46
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 34.46
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 40.1
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 124.11
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