सम्मान (महाभारत संदर्भ) 2

  • न वै मानं च मौनं च सहितौ वसत:।[1]

सम्मान और मौन (तपस्या) एक साथ नहीं रहते।

  • अयं लोको मानस्य असौ मौनस्य रद् विदु:।[2]

ज्ञानी जानते हैं मान इस लोक में सुख मिलता है मौन से परलोक में

  • पिता राजा च वृद्धश्च सर्वथा मानमर्हति।[3]

पिता, राजा और वृद्ध सब प्रकार सम्मान के योग्य है।

  • यदा मानं लभते माननार्हस्तदा स वै जीवति जीवलोको।[4]

संसार में माननीय व्यक्ति तब तक ही जीवित है जब तक मान पाता है।

  • यदावमानं लभते महांतं तदा जीवंमृत इत्युच्ते स:।[5]

जब महान् व्यक्ति अपमानित होता है तो जीते जी मर जाता है।

  • यथाज्येष्ठं यथाश्रेष्ठं पूजये:।[6]

छोटे-बड़े के क्रम से आदर करना चाहिये।

  • अस्तब्ध: पूजयेन्मान्यान्।[7]

विनीत भाव से मान्य पुरुषों का मान करें।

  • मान्यमाना न मन्यते दुर्गाण्यतित्रंति ते।[8]

सम्मान पाकर जो अभिमान नहीं करते वे संकट को पार कर जाते हैं।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. उद्योगपर्व महाभारत 42.44
  2. उद्योगपर्व महाभारत 42.44
  3. उद्योगपर्व महाभारत 72.74
  4. कर्णपर्व महाभारत 67.81
  5. कर्णपर्व महाभारत 67.81
  6. सौप्तिकपर्व महाभारत 9.43
  7. शांतिपर्व महाभारत 70.9
  8. शांतिपर्व महाभारत 110.19

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