- न वै मानं च मौनं च सहितौ वसत:।[1]
सम्मान और मौन (तपस्या) एक साथ नहीं रहते।
- अयं लोको मानस्य असौ मौनस्य रद् विदु:।[2]
ज्ञानी जानते हैं मान इस लोक में सुख मिलता है मौन से परलोक में
- पिता राजा च वृद्धश्च सर्वथा मानमर्हति।[3]
पिता, राजा और वृद्ध सब प्रकार सम्मान के योग्य है।
- यदा मानं लभते माननार्हस्तदा स वै जीवति जीवलोको।[4]
संसार में माननीय व्यक्ति तब तक ही जीवित है जब तक मान पाता है।
- यदावमानं लभते महांतं तदा जीवंमृत इत्युच्ते स:।[5]
जब महान् व्यक्ति अपमानित होता है तो जीते जी मर जाता है।
- यथाज्येष्ठं यथाश्रेष्ठं पूजये:।[6]
छोटे-बड़े के क्रम से आदर करना चाहिये।
- अस्तब्ध: पूजयेन्मान्यान्।[7]
विनीत भाव से मान्य पुरुषों का मान करें।
- मान्यमाना न मन्यते दुर्गाण्यतित्रंति ते।[8]
सम्मान पाकर जो अभिमान नहीं करते वे संकट को पार कर जाते हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 42.44
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 42.44
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 72.74
- ↑ कर्णपर्व महाभारत 67.81
- ↑ कर्णपर्व महाभारत 67.81
- ↑ सौप्तिकपर्व महाभारत 9.43
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 70.9
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 110.19
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