श्री (महाभारत संदर्भ) 2

  • अनीशश्चावमानी च स शीर्घं भ्रश्य्ते श्रिय:।[1]

औरों का अपमान करने वाले असंयमी से श्री शीघ्र ही दूर हो जाती है।

  • श्रियमिच्छेदकुत्सिताम्।[2]

धन की इच्छा करें परंतु निंदित धन की नहीं।

  • सहस्व श्रियमन्येषाम्।[3]

दूसरों के पास लक्ष्मी देखकर उसे सहन करो।

  • अन्यत्रापि सतीं लक्ष्मीं कुशला भुञ्जते सदा।[4]

कुशल मनुष्य दूसरों की लक्ष्मी का भी सदा उपभोग करते हैं।

  • रममाण: श्रिया कश्चिन्नान्यच्छ्रेयोऽभिमन्यते।[5]

कुछ लोग धन में ऐसे रम जाते हैं कि अन्य कुछ अच्छा नहीं लगता।

  • अभिनिष्यंदते श्रीर्हि सत्यपि द्विषतो जनम्।[6]

लोगों से द्वेष करने वाले के पास लक्ष्मी हो तो भी नष्ट हो जाती है।

  • श्रियं विशिष्टां विपुलं यशो धनं न दोषदर्शी पुरुष: समश्नुते।[7]

दोषों पर दृष्टि रखने वाले को पर्याप्त धन, लक्ष्मी और यश नहीं मिलता

  • भूतिस्त्वेवं श्रिया सार्धं दक्षे वसति नालसे।[8]

वैभव तथा शोभा कुशल मनुष्य के पास रहते हैं आलसी के नहीं।

  • नित्यं क्रोधाच्छ्रियं रक्षेत्।[9]

क्रोध से श्री की सदा रक्षा करो।

  • श्रियं रक्षेच्च मत्सरात्।[10]

मत्सर (डाह) से लक्ष्मी की रक्षा करें।

  • अचेष्टमानमासीनं श्री: कञ्चिदुपतिष्ठते।[11]

किसी को चेष्टारहित बैठे हुये ही श्री मिल जाती है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सौप्तिकपर्व महाभारत 2.25
  2. शांतिपर्व महाभारत 70.9
  3. शांतिपर्व महाभारत 104.33
  4. शांतिपर्व महाभारत 104.33
  5. शांतिपर्व महाभारत 104.39
  6. शांतिपर्व महाभारत 104.34
  7. शांतिपर्व महाभारत 120.54
  8. शांतिपर्व महाभारत 174.38
  9. शांतिपर्व महाभारत 189.10
  10. शांतिपर्व महाभारत 329.11
  11. शांतिपर्व महाभारत 331.13

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