- अनीशश्चावमानी च स शीर्घं भ्रश्य्ते श्रिय:।[1]
औरों का अपमान करने वाले असंयमी से श्री शीघ्र ही दूर हो जाती है।
- श्रियमिच्छेदकुत्सिताम्।[2]
धन की इच्छा करें परंतु निंदित धन की नहीं।
- सहस्व श्रियमन्येषाम्।[3]
दूसरों के पास लक्ष्मी देखकर उसे सहन करो।
- अन्यत्रापि सतीं लक्ष्मीं कुशला भुञ्जते सदा।[4]
कुशल मनुष्य दूसरों की लक्ष्मी का भी सदा उपभोग करते हैं।
- रममाण: श्रिया कश्चिन्नान्यच्छ्रेयोऽभिमन्यते।[5]
कुछ लोग धन में ऐसे रम जाते हैं कि अन्य कुछ अच्छा नहीं लगता।
- अभिनिष्यंदते श्रीर्हि सत्यपि द्विषतो जनम्।[6]
लोगों से द्वेष करने वाले के पास लक्ष्मी हो तो भी नष्ट हो जाती है।
- श्रियं विशिष्टां विपुलं यशो धनं न दोषदर्शी पुरुष: समश्नुते।[7]
दोषों पर दृष्टि रखने वाले को पर्याप्त धन, लक्ष्मी और यश नहीं मिलता
- भूतिस्त्वेवं श्रिया सार्धं दक्षे वसति नालसे।[8]
वैभव तथा शोभा कुशल मनुष्य के पास रहते हैं आलसी के नहीं।
- नित्यं क्रोधाच्छ्रियं रक्षेत्।[9]
क्रोध से श्री की सदा रक्षा करो।
- श्रियं रक्षेच्च मत्सरात्।[10]
मत्सर (डाह) से लक्ष्मी की रक्षा करें।
- अचेष्टमानमासीनं श्री: कञ्चिदुपतिष्ठते।[11]
किसी को चेष्टारहित बैठे हुये ही श्री मिल जाती है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सौप्तिकपर्व महाभारत 2.25
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 70.9
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 104.33
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 104.33
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 104.39
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 104.34
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 120.54
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 174.38
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 189.10
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 329.11
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 331.13
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज