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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
5.भगवान शंकर का विषपान
अब जब मन्थन प्रारंभ हुआ, तब सबसे पहले उसमें से जहर निकला। ऐसा भयंकर जहर कि उसकी गंधमात्र से सारा जगत् जलने लगा (क्योंकि वह हलाहल विष था)। यद्यपि भगवान ने पहले ही सचेत कर दिया था कि डरना नहीं, तथापि विष देखते ही सारे असुर तो भागे ही, सारे-के-सारे देवता भी भागने लगे। इसलिए कि कह देना तो सरल होता है, पर उसे करना सरल नहीं होता। अब क्या करें? बोले, वह शिव बाबा हैं न बस ऐसे समय उनको याद कर लेना चाहिए। ध्यान में रखना, जब अच्छी चीज निकली तो किसी को शिवजी की याद नहीं आयी। जब विष निकला, तो बोले ये शिवजी बहुत नाग आदि लपेटे रहते हैं, शायद उनको इस हलाहल विष चल जायेगा। (वैसे भी वे ठंड में बैठे रहते हैं। शायद इससे उनको कुछ गरमी मिले।) सब-के-सब चले शंकर जी के पास। वहाँ जाकर महामृत्युन्जय मंत्र का जप करने लगे क्योंकि सभी लोग मृत्यु से धबराये हुये थे।
वे सब त्र्यम्बक भगवान की आराधना-उपासना करने लगे कि ‘मृत्योर्मुक्षीय मा अमृतात्’ आप हमें मृत्यु से छुड़ा दो, अमृत से नहीं। फिर उन्होंने विराट् रूप में भगवान शिवजी की स्तुति की और कहा आपको नमस्कार, नमस्कार, नमस्कार! हमारी रक्षा करें, हमारे ऊपर बड़ा संकट आया है। भगवान शिवजी सती जी की ओर देखते हैं। कहते हैं - देवी इनके ऊपर कष्ट आया है। फिर कहते हैं -
कोई समर्थ व्यक्ति हो, शक्तिशाली हो तो उसकी शक्ति का क्या उपयोग है? जो दीन लोग हैं, उनकी रक्षा करना, यही उसका उत्तम उपयोग है। और यदि शक्तिशाली होकर भी कोई दीनों की रक्षा नहीं करता तो वह बड़ा अधर्म करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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