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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
17.उद्धवगीता
श्रीमद्भागवत में भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धव जी को यह जो उपदेश दिया उसी का नाम है ‘उद्धवगीता’। इसमें भगवान ने उद्धव जी को पहले संक्षेप में सारी बातें बता दी हैं। उसके बाद जैसे-जैसे उद्धव जी पूछते गए, वैसे-वैसे भगवान उसका विस्तार करते गए। भगवान ने जो मुख्य बातें बतायीं उन्हें हम पहले सार रूप में देखेंगे। उसका विस्तार भागवत में स्थान-स्थान पर पहले भी आ चुका है। एकादश स्कन्ध के सातवें अध्याय के प्रारंभ में आने वाले चार-पाँच श्लोक सार रूप हैं। भगवान कहते हैं-
“उद्धव इस बात को समझ लो कि अपनी बुद्धि, वाणि, चक्षु (नेत्र), कर्ण (कान) आदि इंद्रियों द्वारा तथा मन के द्वारा तुम्हें यह जगत या इस जगत का जो कुछ भी अनुभव में आता है, वह सब-का-सब नश्वर है, नाशवान है‚ इतना ही नहीं वरन् वह सब ‘माया मनोमयम्’ मायामय है, मनोमय है।” अब देखो, अनुभव में आने वाली सभी चीजें नाशवान् होती हैं यह बात तो समझ में आती है क्योंकि यह तो सब के अनुभव से प्रमाणित है। परन्तु मायामय अथवा मनोमय क्या होता है? मायामय अर्थात जो चीज जैसी दिखाई दे रही है वह वास्तव में वैसी नहीं है। माया के कारण वह वैसी दीख रही है। जैसे, सूर्य अस्त होता हुआ दिखाई देता है। पृथ्वी चपटी दिखाई देती है। परन्तु वास्तव में न सूर्य अस्त होता है, न ही पृथ्वी चपटी है। पृथ्वी स्थिर लगती है, चन्द्रमा घटता-बढ़ता दिखाई देता है, लेकिन न तो पृथ्वी स्थिर है न ही चन्द्रमा घटता-बढ़ता है। यह सब माया के कारण होता है। इसी को मायामय कहते हैं, मनोमय कहते हैं। इसी को वैज्ञानिक भाषा में Theory of relativity ‘सापेक्षवाद’ के द्वारा समझाया जाता है। वे कहते हैं कि जो चीज, किसी दृष्टि से जैसी दिखाई देती है, वह वस्तु या चीज स्वयं अपनी दृष्टि से वैसी नहीं होती। अर्थात सत्य कुछ और ही होता है। इसलिए जो-जो कुछ मन से, आँख, नाक, कान से ग्रहण होता है, वह सब व्यावहारिक तो है लेकिन पारमार्थिक सत्य नहीं है। जब हम इस व्यावहारिक सत्ता को ही वास्तविक मान बैठते हैं, अर्थात उसे ही पारमार्थिक सत्य समझ बैठते हैं। तब वह हमारे दुःख का कारण बन जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.7.7
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