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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
3.ऋषभावतार
देखिए, वराह अवतार जो हुआ वह कर्मावतार था। कपिल मुनि का अवतार ज्ञानावतार था। अब यहाँ पर भगवान् ऋषभदेव का अवतार होने वाला है। इस अवतार में परम हंसों का धर्म प्रकट किया गया है। परमहंस परिव्राजकों का, संन्यासियों का धर्म बड़ा कठिन होता है। परमहंसों के उस धर्म को, उनकी चर्या को प्रकट करने वाला ऋषभावतार है। ऋषभ का अर्थ ही होता है श्रेष्ठ। अतः यह अवतार विशेष ध्यान देने योग्य है। अब राजा नाभि बड़े प्रसन्न हुए। कुछ ही समय बाद उनके यहाँ भगवान् आविर्भूत हुए। प्रारंभ से ही उनमें हर प्रकार के श्रेष्ठ लक्षण दीखने लगे। इसलिए उनका नाम ‘ऋषभ’ रखा गया। उनकी बाल्यावस्था से ही, नाभि उनमें इतना आसक्त हो गया कि कुछ पूछो नहीं। ऋषभ के प्रभाव को देखकर इन्द्र को भी जलन हुई और इन्द्र ने वर्षा करनी बन्द कर दी। ऋषभ देव हँसे। अपने प्रभाव से उन्होंने वर्षा करवा दी। इन्द्र देव देखते रह गए। उनके इस प्रभाव को देखा तो नाभि ने सोचा कि अब मुझे सेवानिवृत्त होना चाहिए, इतना श्रेष्ठ लड़का है, इसको राज्य सौंप देना चाहिए। तो ऋषभ देव को राजा बनाकर नाभि घर से निकल जाते हैं। अब ऋषभ देव गुरुकुल जाते हैं, गुरु की सेवा करते हैं, और ज्ञान प्राप्त करते हैं। फिर गुरु की आज्ञा से उनका विवाह होता है इन्द्रदत्ता माने इन्द्र के द्वारा दी गयी उनकी कन्या जयन्ती के साथ। उनके सौ पुत्र हुए। जिनमें भरत ज्येष्ठ ही नहीं सबसे श्रेष्ठ भी थे। उन भरत का आख्यान आगे आने वाला है। वे ही बाद में जड़ भरत कहलाए। भरत सबसे बड़े थे। और उनके बाद के जो नौ लड़के हुए, उनके नाम हैं कुशावर्त, इलावर्त, ब्रह्मावर्त, मलयकेतु, भद्रसेन, इन्द्रस्पृक्, विदर्भ और कीकट। इस प्रकार ये दस हुए। शेष नब्बे में से इक्यासी (81) तो कर्मकाण्डी बने, लेकिन जो शेष नौ थे वे सभी बड़े ज्ञानी पुरुष थे।
इन नौ योगियों के चरित्र का वर्णन ग्यारहवें स्कन्ध में किया गया है। वहाँ नारदजी वसुदेव जी को वर्णन करके बताते हैं कि किस प्रकार इन नौ योगियों ने राजा निमि के दरबार में ज्ञान का उपदेश दिया। अतः नौ योगियों की कथा को हम वहीं ग्यारहवें स्कन्ध में देखेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 5.4.11
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