विषय सूची
श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
10.भूगोल का वर्णन
राजा परीक्षित शुकदेव जी से पूछते हैं, ”महाराज, आपने बताया कि राजा प्रियव्रत ने सप्तद्वीप बनाए और सारे लोकों पर विजय प्राप्त की। कृपा करके आप मुझे भूगोल का विस्तृत वर्णन करके बताइये कि पृथ्वी कितनी बड़ी है, स्वर्ग कितना बड़ा है, इन सबका परिमाण क्या है, इनके लक्षण क्या हैं?“ शुकदेवजी कहते हैं, ”भगवान के सब लोकों का वर्णन कोई अनन्त काल तक करता रहे तो भी वह पूरा नहीं हो सकता। इतना ही समझ लो कि भगवान ही इस सृष्टि के कारण हैं, इसकी स्थिति के भी वे ही कारण हैं। और यह अनन्त व्यापक सृष्टि भगवान में ही दिखाई देती है, लेकिन वास्तव में यह सृष्टि और उसका जितना विस्तार है वह सब-का-सब आरोपित है। वास्तविक नहीं है। इसलिए इस पर ज्यादा विवेचन करने की आवश्यकता नहीं है।“ आग्निध्र के पुत्र नौ वर्षों के अर्थात् नौ स्थानों के नाम से जाने गये। इस ब्रह्माण्ड में प्रियव्रत के द्वारा जो विभाग किये गये उन्हें ही नौ वर्ष कहते हैं जिनके नाम हैं भद्राश्व वर्ष, हरि वर्ष, केतुमाल वर्ष, रम्यक वर्ष, हिरण्यमय वर्ष, कुरु वर्ष, किम्पुरुष वर्ष, इलावर्त वर्ष और भारत वर्ष (अजनाभ वर्ष)। उन सभी स्थानों पर भगवान की आराधना की जाती है। उनका वर्णन आगे भी किया गया है। उसका सार बस इतना ही है कि भगवान की उपासना हर स्थान पर हो सकती है, होती है। इसलिए, हम भगवान की आराधना के अधिकारी हैं या नहीं, यह स्थान उसके लिए उचित है या नहीं, ऐसी शंकाओं को अपने मन में स्थान नहीं देना चाहिए। पाँचवें स्कन्ध के सोलहवें तथा छब्बीसवें अध्याय में राजा परीक्षित ने प्रश्न किया कि आप इतने प्रकार के लोकों का वर्णन कर रहे हैं, वे सब कहाँ से आते है? फिर उनमें भेद किस कारण से हो गया? श्री शुकदेव जी उत्तर देते हैं कि उसका कारण है त्रिगुणात्मिका प्रकृति। सत्त्व, रजस और तमस इन तीनों गुणों के भिन्न-भिन्न अनुपात में होने वाले संयोग के कारण ही भिन्न-भिन्न प्रकार के लोक बनते हैं। उन लोकों में निवास करने वाले लोगों के स्वभाव, वासना और कर्म भी पृथक्-पृथक् होते हैं। और इसीलिए स्वाभाविक रूप से उनके कर्म फल भी भिन्न-भिन्न होते हैं। भिन्न-भिन्न फलों को हम एक ही स्थान पर नहीं भोग सकते। जैसे, यदि किसी को आकाश मार्ग से यात्रा करनी हो, तो वह रेलगाड़ी से संभव नहीं है, जहाज से भी संभव नहीं है, उसके लिए विमान में बैठना पड़ेगा। तो इस प्रकार भिन्न-भिन्न लोक, भिन्न-भिन्न कर्मादि तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के जीव होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विवरण | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज