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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
7.नारदजी के पूर्व जन्म की कथा
आगे देवर्षि नारदजी अपने पूर्वजन्म की कथा बताते हुए वेदव्यास जी से कहते हैं कि पूर्वकल्प में मै एक दासी पुत्र था। वह दासी साधु-संतों की सेवा किया करती थी, तब मैं छोटा-सा बालक था, वे साधु लोग मुझसे बहुत प्यार करते थे। मैं उनका उच्छिष्ट खाता था। इस प्रकार मुझे सत्संग मिला, महत्सेवा भी मिल गयी। माँ तो अनपढ़ थी, मुझमें बहुत आसक्त थी। एक दिन जब वह जंगल में गयी थी, उसको साँप ने काट लिया और वह मर गयी। मैंने उसमें भी भगवान की कृपा मानी।
मैंने ऐसा मान लिया कि भगवान ने मुझे मुक्त कर दिया। अब माँ की चिन्ता लगी रहती थी। अब माँ चली गयी है, तो मैं पूरा-का-पूरा समय भगवत्सेवा मे लगा सकता हूँ। यहाँ पर एक बात ध्यान में रखना। इस प्रकार यदि माँ का मरण हो जाये, तब तो हम भी ऐसा सोच सकते है।, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि माँ मर जाए तो मैं मुक्त हो जाऊँगा। कोई इस प्ररका सोचता है तो वह महादुष्ट लड़का है। देखो, यहाँ समझना यह है कि जीवन में कुछ अप्रिय घटित होता है, तो उस घटना में भी अपना जो लाभ छिपा है उसे कैसे देखें, कैसे समझें। आर्थिक लाभ की बात नहीं कह रहा हूँ, यहाँ पर पारमार्थिक लाभ की बात है। तो नारदजी कहते हैं कि अपना सारा समय भगवान की सेवा में लगाने के विचार से मैं वहाँ से चल पड़ा। चलते-चलते थक गया तो एक पेड़ के नीचे बैठ गया। वहाँ पर जाने क्यों मन में ऐसा भावावेश आया कि मैं ध्यान करने लगा। और तब एक क्षण के लिए भगवान प्रकट भी हुये। उनका इतना सुन्दर रूप देखा कि मैं मुग्ध हो गया। लेकिन, भगवान को पता नहीं आने से भी ज्यादा जाने की जल्दी क्यों होती है, वे एक क्षण के लिये आये और चले गये। वे चले गये तो ऐसा लगा जैसे मछली को पानी से बाहर निकाल दिया हो। मैं व्याकुल होकर तड़पने लगा, रोने लगा कि भगवान आप आकर चले गये। तब आकाशवाणी हुई। भगवान ने कहा- बेटा अभी तेरे मन में बहुत सारा मैल भरा हुआ है। अभी तुमको और साधना करने की आवश्यकता है। तुम साधना करो, तुम्हारा मन जब शुद्ध हो जाएगा। तब तुम मुझे ही प्राप्त हो जाओगे। तुम्हारे मन को शुद्ध करने के लिए ही मैंने थोड़ी ही देर दर्शन देकर तुम्हे वही छोड़ दिया, जिससे कि तुम्हारे मन में तड़प बनी रहे। इससे विरह की एक ज्वाला प्रज्वलित हो जाएगी, और वह विरह की अग्नि ही तुम्हारे सारे पापों को नष्ट कर डालेगी, जला डालेगी। चिन्ता मत करो। तब मैं व्याकुल होकर भगवान का ध्यान करता रहा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.6.90
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