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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
10.ध्रुव जी को ध्रुव लोक की प्राप्ति
इसके बाद, मनु जी के उपदेश व कुबेर जी के वरदान के फलस्वरूप ध्रुव जी के मन में तीव्र भगवद्भक्ति का उदय हुआ। वे सारी सृष्टि को अविद्याकृत, स्वप्रवत् देखने लगे और एक दिन, (छत्तीस हजार वर्षों तक राज्य करने के बाद) बद्रीवन, विशाला क्षेत्र में चले गए। वहाँ पहले विराट रूप में मन लगा फिर भगवान में ही अपने मन को लीन कर दिया। तब ध्रुव जी को लेने के लिए विमान आया। ध्रुव जी जब उस विमान पर चढ़ ही रहे थे, तो उसी समय मृत्यु वहाँ आकर कहने लगी - देखो इस मृत्यु लोक से जो भी जाता है वह मुझे कर दिये बिना कैसे जा सकता है? आपने तो मृत्यु को भी पार कर लिया है, अतः अब आप पर मेरा कोई वश नहीं है। आप मेरे मस्तक पर पैर रखकर विमान में चढ़ जाइये।
तो मृत्यु के सिर पर पैर रखकर ध्रुव जी उस विमान में बैठ जाते हैं। अर्थात् मृत्यु भी उनका स्पर्श नहीं कर पाई। और जब विमान चलने लगा तो उन्होंने कहा, ”अरे कहाँ उड़कर चले जा रहे हो? मेरी माँ को तो आपने नीचे ही छोड़ दिया।“ तब भगवान के पार्षद सुनन्द और नन्द ने उनसे कहा - आप चिन्ता न करें। वह जो आगे विमान जा रहा है उसमें बैठकर आपकी माँ पहले ही जा रही है। बोले तब तो ठीक है। ध्रुव जी अपनी माँ को भी उस लोक में लेकर गये।
एक पुराण में तो ऐसा लिखा है कि बहुत समय बाद, एक बार नारदजी ने सोचा कि जरा चल कर देखते हैं कि मेरा शिष्य ध्रुव लोक में कैसा आनंद ले रहा है? परन्तु वहाँ पहुँच कर वे देखते क्या हैं कि सिंहासन एक ओर पड़ा हुआ है तो ध्रुव का मुकुट दूसरी ओर पड़ा है और वे वहाँ नीचे पड़े रो रहे हैं। यह बात उनके दिल से जा नहीं रही थी कि मैनें भगवान को प्राप्त करके उनकी अनन्य भक्ति ही क्यों नहीं माँग ली। दूसरी चीज क्यों माँग ली। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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