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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
46.कुवलयापीड़ का उद्धार
अगले दिन रंगशाला पहुँच कर भगवान ने द्वार पर खड़े मदमस्त कुवलयापीड हाथी को झूमते हुए देखा। रास्ता माँगने पर महावत ने हाथी को क्रोधित करके भगवान की ओर बढ़ा दिया। थोड़ी देर उसके साथ खेल करके भगवान ने उसकी सूँड़ पकड़कर उसे पटक दिया। फिर उसे दबाकर उसके दोनों दाँत उखाड़ लिये। एक दाँत बलराम जी को दे दिया और दूसरा अपने पास रख लिया। वहाँ अन्दर रंगशाला में कंस सबसे ऊँचे मंच पर बैठा है। मथुरावासी तथा देश भर से आए हुए लोग भी सजे हुए रंगशाला में पहुँच कर यथोचित स्थान पर बैठे हुए हैं। यद्यपि कंस बड़ा धीर था, तथापि कुवलयापीड के मरने का समाचार मिला, तो कंस का मन भयभीत होने लगा। फिर भी उसको लगा अभी, चाणूर और मुष्टिक मेरे दो खास पहलवान बचे हुए हैं। वे दोनों श्रीकृष्ण का काम तमाम कर सकते हैं। अभी भी उसको ऐसा ही लग रहा था। वैसे, आशा तो कुछ थी नहीं, फिर भी वह एक झूठी आशा लेकर बैठा था।
कुवलयापीड हाथी के दाँतों को शस्त्र के समान धारण करके, बलरामजी तथा श्रीकृष्ण, गोपबालों सहित उस रंगशाला में प्रवेश करते हैं। तब वहाँ उपस्थित सभी लोगों को भगवान अपने-अपने भावानुरूप अलग-अलग प्रकार से दिखाई देते हैं। तुलसीदास जी ने भी अपने रामायण में यही कहा है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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