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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
7.समुद्र-मन्थन का तात्पर्य
अब इस समुद्र मन्थन के तात्पर्य को भी समझना आवश्यक है। यह क्षीरसागर हमारा अन्तःकरण है। वास्तव में इसी में मन्थन करना है। इसके अनेक अर्थ बताए गए हैं। लेकिन मन्थन इसी का करना है। यह मन्थन मन के द्वारा किया जा सकता है। उसे करते ही रहना है। यह मन्थन निदिध्यासन अर्थात ध्यानाभ्यास की प्रक्रिया है। इसका सामान्य अर्थ ऐसा भी किया जा सकता है कि किसी भी कर्म का फल अमृत है और उस फल की प्राप्ति में अनेक विघ्र आते ही रहते हैं। सफलता भी प्राप्त होती है। विघ्रों से घबराना नहीं चाहिए और सफलताओं पर मुग्ध भी नहीं होना चाहिए। थोड़ी सफलता मिल गई तो वहीं अटके रह गए, ऐसा भी नहीं होना चाहिए। आगे बढ़ते जाओ, जब तक अन्तिम फल नहीं मिल जाता, तब तक बढ़ते रहो। इसी प्रकार जब निदिध्यासन रूपी मन्थन करने बैठें तो मैं देहादि नहीं हूँ, मैं तो चैतन्य स्वरूप आत्मा हूँ ऐसा ध्यान करना चाहिए। परन्तु ऐसा कब होगा? जिस प्रकार क्षीर सागर में पहले जड़ी-बूटी, ओषधियाँ आदि डाली गई थीं उसी प्रकार हमारे अन्तःकरण रूपी समुद्र में, वेदान्त के श्रवण द्वारा पहले उपनिषदों के वाक्य डाल दिए गए हों तब तो यह मन्थन किया जा सकता है। अन्यथा उससे कोई लाभ नहीं होता। एक और ध्यान में रखने योग्य बात यह है कि सारे काम भगवान् की ही कृपा से, उन्हीं के अनुग्रह से होते रहते हैं। अतः उनका अनुग्रह अर्जित करके तब मन्थन करते रहना चाहिए। और यह जो अमृत है वह वास्तव में अपने आत्मस्वरूप का अनुभव है। मन्थन प्रारम्भ करने के बाद उस अनुभव की प्राप्ति तक, बीच में अच्छे-बुरे कई अनुभव प्राप्त हो सकते हैं। कड़वा अनुभव भी हो सकता है, अनेक प्रकार की सिद्धियाँ भी प्राप्त हो सकती हैं। लेकिन कड़वाहट आ जाए तो शिव जी का ध्यान कर लेना चाहिए। जहर चला जाएगा। अर्थात शिवजी की तरह शान्त चित्त होकर आगे बढ़ते रहने पर मन में उठने वाली आसुरी वृत्तियों को भगवान् स्वयं समाप्त कर देते हैं। सिद्धियों के आकर्षण को भी मिटा देते हैं। अन्ततः अमृतस्वरूप की प्राप्ति भी हो जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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