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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
15.राजा पृथु को सनत्कुमारों का उपदेश
एक दिन की बात है, इनकी सभा में सनत्कुमार अपने आप आ पहुँचते हैं। अब देखिये, इनका यज्ञ कैसा हुआ - पृथ्वी माता ने सारा वैभव दे दिया। सारे लोगों की कामनाएँ पूर्ण हो गयीं। इस प्रकार इनका यज्ञ अधूरा होते हुए भी पूरा हो गया, क्योंकि साक्षात् भगवान वहाँ पर आ गये। भगवान के बाद अब भक्त आ रहे हैं। सभा में सनत्कुमारों को आते देखकर राजा पृथु अत्यन्त प्रसन्न हुए। कहते हैं - आप जैसे सन्त बिना किसी निमन्त्रण के हमारे पास आ जाएँ, इससे बढ़कर और क्या भाग्य हो सकता है? मैं तो सदा ही आपकी सेवा के लिए तैयार हूँ। अब आप मुझे और हम सब लोगों को उपदेश दीजिए।
आपसे तो कुशल-मंगल का प्रश्न पूछना भी मूर्खता है। आपके लिए कुशल-अकुशल इन दोनों का कोई अर्थ नहीं है। आपसे मैं क्या कुशल पूछँ? लेकिन हमारी कुशल नहीं है। इसलिए आप हम लोगों के लिए श्रेय का मार्ग बताइये। यह सुन कर सनत्कुमार प्रसन्न होते हैं और कहते हैं -
देखो सत्संग एक ऐसी सुन्दर चीज है कि इससे सब प्राणियों को अपने कल्याण की बात स्वतः समझ में आने लगती हैं। यहाँ सनत्कुमार ने उसी ज्ञान का उपदेश दिया है जिसे हम प्रारंभ से देखते आ रहे हैं। उसमें यही बात बतायी गई है कि अपने धर्म का पालन करें, उससे विषयों से वैराग्य उत्पन्न होगा। तब साधुओं की सेवा करें, और उनसे ज्ञान प्राप्त करें, उनसे कथा सुनें। तब कथा में रुचि उत्पन्न होगी, भक्ति उत्पन्न होगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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