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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
13.राजा पृथु के यज्ञ में भगवान का प्राकट्य
अब राज्य में संपत्ति भी हो गयी। राजा पृथु ने एक के बाद एक, ऐसे अनेक अश्वमेघ यज्ञ किए। उनके निन्यानबे यज्ञ पूरे हो गए थे और अब सौंवाँ यज्ञ चल रहा था। इन्द्र देवता को डर लगने लगा कि इनके सौ यज्ञ पूरे हो गए तो मेरा पद चला जाएगा, यद्यपि राजा पृथु इन्द्र पद के लिए यज्ञ नहीं कर रहे थे। देखो, कोई कितने ही ऊँचे पद पर क्यों न चला जाए, लेकिन यदि उसे भय लगता हो, तो काम-क्रोध भी आ ही जाते हैं और तब वह उस पद से नीचे गिर जाता है। इसी बात को यहाँ दर्शाया गया है। अब इन्द्र ने यज्ञ का घोड़ा चुरा लिया तो पृथु का लड़का उनके पीछे-पीछे गया। तब इन्द्र तपस्वी बनकर बैठ गया। पृथु पुत्र को लगा यह तो तपस्वी है, साधु है, इसको कैसे मारें? वह वापस चला आया। उससे अत्रि ऋषि ने कहा, ”अरे तुम जाओ, वह तो तपस्वी नहीं इन्द्र है।“ वह पुनः उसके पीछे गया तो छोड़ा छोड़कर इन्द्र भाग गया। तब राज पृथु का पुत्र घोड़े को लेकर आया। तब इन्द्र देव वहाँ पहुँचकर फिर से माया करने लगे। इन्द्र यज्ञ को पूरा होने नहीं दे रहा है, यह देखकर राजा पृथु को क्रोध आ गया और उन्होंने अपना धनुष बाण उठा लिया। तब ब्रह्मा जी वहाँ आ पहुँचे। और राजा पृथु से कहने लगे, ”बेटा, तुम धर्म संस्थापना के लिए आये हो। तुम इसे (सौवें यज्ञ को) प्रतिष्ठा का विषय क्यों बनाते हो? तुम्हें इन्द्र का पद तो चाहिये नहीं। जब पद नहीं चाहिये तब तो सौंवाँ यज्ञ पूरा हो ही, यह आग्रह क्यों रखते हो? इन्द्र दुष्ट कर्म करने लगा है। तुम भी क्यों उसी स्तर पर उतर आते हो? उसको अपने राज्य पर बैठा रहने दो।“ राजा पृथु ने कहा, ”बहुत अच्छा। वास्तव में मुझे इतना क्रोध करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। एक यज्ञ पूरा नहीं हुआ, तो इससे क्या बिगड़ गया?“ देखिये, तब कैसा आश्चर्य हुआ। जैसे ही राजा पृथु ने बात मान ली वैसे ही यज्ञ भगवान नारायण स्वयं इन्द्र को पकड़कर वहाँ ले आये। और बोले - देखो, मैं इन्द्र को लेकर आया हूँ। मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ कि तुमने सौंवे यज्ञ को प्रतिष्ठा का विषय नहीं बनाया। तब राजा पृथु को भी थोड़ा सा दुःख हुआ कि मैंने ऐसा क्यों किया? राजा पृथु ने इन्द्र को गले लगा लिया। और कहा, ”अब हमारी तुम्हारी कोई शत्रुता नहीं है। तुम अपने स्थान पर रहो। मैं यहाँ पर रहूँगा।“ देखो, यह यज्ञ अधूरा रहा कि पूरा हुआ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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