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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
1.दक्ष प्रजापति व शिवजी का वैमनस्य
दक्ष ने अपनी पुत्री सती का विवाह किया शिवजी के साथ। वैसे उनको शिवजी पहले से ही अच्छे नहीं लगते थे। क्योंकि वे श्मशान में रहते हैं, विभूति लगाते हैं। उनका कोई घर भी नहीं है। जब देखो वट वृक्ष के नीचे बैठे रहते हैं। देखो, जिनको गृहस्थाश्रम में बड़ी आसक्ति होती है, उनको साधु संन्यासियों से कोई प्रेम नहीं होता और सूट-बूट पहनने वाले लोगों को महात्मा लोग अच्छे नहीं लगते। जैसे, जो चर्चिल थे, वे महात्मा गाँधी जी से कभी मिले ही नहीं। बोले ये क्या! चादर ओढ़ते हैं, धोती पहनते हैं, मुझे नहीं मिलना उनसे। देखो, दक्ष प्रजापति प्रवृत्ति मार्ग पर चलने वाले हैं और शिवजी निवृत्ति मार्ग पर। वे ध्यान करते हुए बैठे रहते हैं। रामायण सुनाने वाले तो वास्तव में वे ही हैं। भागवत सुनाने वाले भी वे ही हैं। कृष्ण-कथा में रमते हैं। इतना ही नहीं, वे तो गोपी का रूप लेकर व्रज में जाते थे। इसलिए कि गोपियों के साथ होने वाले रास में भाग लेने के लिए गोपी बनकर ही जाना पड़ता है। कहने का अर्थ है वे बड़े प्रेमी हैं। देखो प्रवृत्ति मार्गी लोगों को ज्ञान की चर्चा, मंदिर में जाना ये सब बातें अच्छी लगती हैं क्या? वे कहते हैं - कर्म करना चाहिए। उनको कर्म की ही लगी रहती है। ‘दक्ष’ माने कुशल, ये प्रवृत्ति मार्ग वाले अपनी बुद्धि बहुत चलाते रहते हैं। उनकी कन्या थी सती। शिवजी तो विश्वास रूप हैं। अब सती जी की बहुत विचित्र स्थिति हो गयी। वे कन्या हुई तर्कवादी दक्ष की, पत्नी हुई विश्वास रूपी शिवजी की। तो कभी उनके मन में पिता के संस्कार जागृत हो जाते थे तो कभी पति के संस्कार। जब तक पति के संस्कार में रहती थीं, तब तक उनके मन में शान्ति रहती थी। लेकिन पिता के संस्कार जागृत होते ही गड़बड़ हो जाती थी। हमारा मन भी कभी संशय से ग्रस्त हो जाता है, तो कभी श्रद्धा विश्वास से भरा रहता है। मन में विश्वास हो तो शान्ति रहती है और संशय आ जाए तो तर्क-वितर्क होने लगता है और तब बड़ी अशान्ति हो जाती है। सती जी शिवजी को चाहती थीं, अतः उनका विवाह शंकर के साथ हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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