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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
21.हंसोपाख्यान
अगले अध्याय में गुणों का वर्णन करके भगवान ने कहा कि मनुष्य को पहले सत्त्व गुण को बढ़ाकर अपने अन्तःकरण को शुद्ध कर लेना चाहिए अर्थात् रजोगुण तथा तमोगुण को क्षीण कर लेना चाहिए। सत्शास्त्र सेवन से सत्त्व गुण, सत्त्व गुण से धर्माचरण, धर्माचरण से चित्त शुद्धि और शुद्ध चित्त से आत्म तत्त्व का ज्ञान होता है - गुरु के उपदेश द्वारा। उद्धव जी ने पुनः कहा, ”भगवान, संसार में लोग प्रायः इस बात को जानते हैं कि विषय सुख परिणाम में दुःख देता है। फिर भी वे उसे रमते रहते हैं। ऐसा क्यों है? इसका क्या कारण है?“ देखो, श्रीमद्भागवत में भगवान के अवतार, श्री कृष्ण लीला, बन्ध, मोक्ष, तत्त्व, अतत्तव आदि अनेक प्रसंग आते हैं। कभी-कभी लगता है इसमें तो किस्से कहानियों का ही वर्णन चल रहा है। परन्तु सच में देखा जाए, गहरी दृष्टि से देखा जाए तो ऐसी बात नहीं है। सभी प्रसंगों में तत्त्व ज्ञान भरा हुआ है। भगवान कहते हें, ”उद्धव! तुम ठीक कहते हो। तुमने जो पूछा है वह विषय ही ऐसा है कि जो सरलता से समझ में न आए। इसका मूल कारण यही है कि देह (स्थूल सूक्ष्मादि) में मनुष्य की जो सत्य बुद्धि (अहं बुद्धि) हो गई है, वही उसके सत्त्व प्रधान मन को रजोगुणी बना देती है और फिर विषयों से लिप्त होकर वह शुद्ध विवेक की सामर्थ्य को खो बैठती है। इसलिए साधक को चाहिए कि हताश हुए बिना सतत प्रयास रत होकर, अपने मन को मुझमें लगाए। तुम्हें ही नहीं, सनत्कुमारों को भी यह विषय जल्दी से समझ में नहीं आया था। तब मैंने उन्हें योग का यही उपदेश किया था।“ भगवान के ऐसे वचन सुने तो उद्धव जी के मन में उस उपदेश को जानने की इच्छा हुई। वे भगवान से कहते हैं, ”भगवान आपने सनत्कुमारों को जो उपदेश दिया था, जिस रूप से दिया था, वह सब मैं जानना चाहता हूँ।“ तब भगवान श्री कृष्ण कहते हैं - एक बार जब सनत्कुमारों को इस विषय में शंका हुयी, तो शंकानिवारणार्थ वे अपने पिता ब्रह्मा जी के पास गए। वहाँ जाकर योग की इस अंतिम व सूक्ष्म बात को जानने के लिए उन्होंने ब्रह्मा जी से प्रश्न किया कि -
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.13.17
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