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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
27.ज्ञानयोग, कर्मयेाग व भक्तियोग
भगवान कहते हैं, ”मेरी भक्ति से मनुष्य जो चाहे वह प्राप्त कर सकता है। वह स्वर्ग लोग जाना चाहे, ब्रह्मलोक जाना चाहे या जहाँ जाना चाहे जा सकता है। लेकिन जो साधु भक्त हैं, वे कुछ नहीं चाहते।“
”स्वयं मैं उन्हें मोक्ष देना चाहूँ, तो उसे भी वे नहीं लेना चाहते।“ यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि भगवान से कुछ नहीं चाहना तो ठीक है, परन्तु नहीं चाहने का अभिमान ठीक नहीं है। भगवान कहते हैं -इस प्रकार जो सन्मार्ग पर चलेगा उसे मेरी प्राप्ति हो जायेगी। यह भक्ति साधन है। अब साधक को देखना चाहिये कि मुझमें कितना वैराग्य है और मेरे लिए कौन-सा मार्ग उचित है। सामान्यतः लोगों में थोड़ा वैराग्य होता है और थोड़ा राग भी होता है। ऐसों के लिए भक्ति योग उचित साधन है। 28.गुण-दोष का विवेचनअगले अध्याय में देश-काल, द्रव्य तथा गुण-दोष का विवेचन किया गया है। इसमें विशेष रूप से समझने की बात इतनी है कि कौन-सा देश, कौन-सा काल तथा कौन-सा द्रव्य पवित्र है, जो वस्तु हमारे मन को भगवान् की ओर ले जाए, वह पवित्र है। और जो हमें भगवान् से विमुख कर दे, वह अपवित्र है। मुम्बई में रहते हुए भी यदि हमारा मन भगवान् की ओर जाता है, तो हमारे लिए मुम्बई पवित्र है। यदि हरिद्वार या ऋषिकेश में रहकर भी मन में मादक द्रव्य आदि के ही विचार आते रहे हों, तो हमारे लिए वे स्थान पवित्र नहीं है, यद्यपि भौतिक दृष्टि से वे स्थान बड़े ही पवित्र हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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