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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
7.भगवान का प्राकट्य - श्री कृष्णावतार
आगे बहुत सुन्दर वर्णन है। काल ने भगवान से कहा- भगवान! सब लोग मेरी बहुत हँसी उड़ाते रहते हैं। कहते हैं यह काल भगवान का कभी स्पर्श नहीं कर सकता, काल क्या कर लेगा भगवान का। भगवान तो अकाल हैं, त्रिकालातीत हैं, काल के परे हैं, ऐसे बोलते रहते हैं। काल तो भगवान के लिए चटनी है, अचार है, ऐसा बोलते रहते हैं। मेरी तो पूरी तरह से मानहानि कर डाली लोगों ने। आप कुछ कीजिये जिससे मुझे भी थोड़ा वैभव प्राप्त हो, कुछ गौरव प्राप्त हो। भगवान ने कहा- अच्छा मैं कालातीत हूँ, लेकिन अब मैं काल में आऊँगा। रामावतार के समय मैं दिन में आया था, अब मैं रात के समय आऊँगा। तब सूर्यवंश में आया था, अब चन्द्रवंश में आऊँगा। भगवान सबके लिये समान हैं, यहाँ वे अपना समत्व दिखा रहे हैं। कहते हैं- उस समय नवमी के दिन आया था, अब अष्टमी के दिन आऊँगा। नवमी पूर्ण ब्रह्म की संख्या है, नौ की संख्या हमेशा पूर्ण रहती है। नौ दूनी अठारह, आठ और एक नौ, नौ तिया सत्ताईस, सात और दो नौ। हर बार नौ संख्या नौ ही बनी रहती है। यह नौ ब्रह्म का प्रतीक है। भगवान ने कहा- उस समय ब्रह्म की संख्या में आया था, अब इस समय माया की संख्या में आऊँगा। आठ माया की संख्या है लेकिन स्वयं भगवान की है। अष्टधा प्रकृति ही भगवान की माया है। अव्यक्त, महत्तत्त्व, अहंकार और पंचमहाभूत-ये ही आठ प्रकृतियाँ हैं। इसीलिये भगवान की पत्नियाँ भी सोलह हजार आठ या सोलह हजार एक सौ आठ हैं। उनमें जो आठ हैं- रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवती, कालिन्दी, मित्रविन्दा, सत्या भद्रा व लक्ष्मणा- ये भगवान की अष्टधा प्रकृति हैं। इसलिये भगवान ने कृष्णावतार में माया के ज्यादा ही कार्य किए। कृष्णावतार में वे अष्टमी (माया की संख्या) के दिन आए।
अपनी अष्टधा प्रकृति पर अपना पूरा वश रखते हुए भगवान माया से प्रकट होते हैं। इस बार भगवान कृष्ण पक्ष में आये हैं, देखो उस समय का कैसा वर्णन किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भ. गीता 4.6
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