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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
12.वानप्रस्थाश्रम
इसके बाद वानप्रस्थ आश्रम का वर्णन किया गया है। हमारी संस्कृति में नियम ऐसा बताया गया है कि अपने पौत्र का मुख देख लिया तो घर छोड़ देना चाहिए। इस पर कोई कह सकता है मेरा तो लड़का नहीं है, लड़की है। बात यह है कि एक आयु निश्चित कर लेनी चाहिए जैसे, अधिक-से-अधिक साठ साल। साठवाँ साल मनाया जाता है न, क्यों? क्योंकि मनुष्य की परम आयु अधिक-से-अधिक एक सौ बीस साल की मानी जाती है। जैसे क्रिकेट में century (शतक) होती है न? तो जब पचास रन हो जाएँ तब तालियाँ बजती हैं, उसी प्रकार साठ साल हो गए तो आधा जीवन पूरा हो गया। महाराज, अब निकलो, साठ साल के हो गए, तो अब निकल पड़ो घर से। लेकिन हम लोग ऐसे हैं कि सोचते हैं ‘एक मैच और खेल लें, टेस्ट मैच नहीं तो रणजी ट्राफी, रणजी ट्राफी नहीं तो लोकल मैच तो खेल ही लें’। लोग सेवानिवृत्त तो हो जाते हैं, पर फिर से कहीं-न-कहीं जुट जाते हैं। जैसे, कोई-कोई आकर हमसे कहते हैं कि स्वामी जी मैं एक साल बाद सेवानिवृत्त होने वाला हूँ, मुझे कुछ काम बताइए। हम एक साल उसकी प्रतीक्षा करते हैं। मिशन में तो जरूरत रहती ही है। लेकिन जब समय आता है, तो वे कहते हैं - मैंने दूसरा काम प्रारम्भ कर लिया है, दिन मे सिर्फ दो घंटे के लिए जाना पड़ता है। बस पकड़ लिया उन्होंने, देखो यह छूटता ही नहीं। वानप्रस्थ आश्रम में तो छोड़ देना चाहिए। पत्नी साथ में आए तो ठीक है, नहीं आए तो भी ठीक है। वन में जाकर नियमपूर्वक रहें। ज्यादा-से-ज्यादा समय आत्मज्ञान की प्राप्ति में लगाएँ। इस प्रकार यह वानप्रस्थ धर्म बताया गया। किसी को लग सकता है कि स्वामी जी आपने बीच में गृहस्थ आश्रम को तो छोड़ ही दिया। उसका वर्णन विशेष रूप से पृथक अध्याय में किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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