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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
14.भगवान की भक्तवत्सलता
अब इस कथा पर थोड़ा विचार करें। भगवान राग-द्वेष रहित हैं, वे सबके लिए समान हैं। राजा बलि धर्मपूर्वक रह रहे हैं। अतः भगवान ईश्वर रूप से उनका विरोध नहीं कर सकते, लेकिन अदिति ने जो तप किया है उस तप से प्रसन्न होकर उनको जो वरदान चाहिए वह देना भी भगवान का कर्तव्य हो जाता है। तो अदिति की इच्छा भी पूर्ण करनी है और बलि को दण्ड भी नहीं देना है। यह कैसे हो? तो बोले मैं देवताओं का पक्ष लूँगा। कैसे? भाई बनकर मैं उनका पक्ष ले सकता हूँ। देखो, उन्होंने देवताओं का काम कर दिया, उनको पुनः स्वर्ग दिला दिया, उनकी माता अदिति की इच्छा पूरी कर दी। राजा बलि को श्रेष्ठता मिलनी चाहिए वह भी दे दी, क्योंकि स्वर्ग से बढ़कर सुख वाले सुतल लोक का राज्य उसे दे दिया। और इतना ही नहीं, स्वयं वहाँ पर पहरा देने के लिए चले गये और प्रह्लाद को भी वहाँ पर भेज दिया। बताओ, स्वयं राजा बलि के सेवक हो गये। अधिक फल किसको दिया? भगवान ने राजा बलि को ही अधिक फल दिया है। यहाँ ध्यान देने योग्य एक और बात है। एक पैर से पृथ्वी को और दूसरे पैर से स्वर्ग को नापना- यह क्या है? बलि ऐसा धर्मात्मा था कि उसने अपने पुण्य से इस लोक को और परलोक को भी जीत लिया था। और जीत कर- ये मेरे लोक हैं, मैं इनका स्वामी हूँ, अब उन्हें भगवान को दान कर रहा हूँ, ऐसा अभिमान भी कर लिया। जो चीज अपनी है ही नहीं उसका किसी को कैसे दान कर सकते हैं? एक तो इन लोकों को जीतना और यह मेरा है ऐसा अभिमान करना, ममत्व करना, ये दोनों ही गलत हैं। बलि को ऐसा अभिमान हो जाने पर भगवान ने क्या किया? उसके इहलोक और परलोक दोनों ही ले लिये। लोक तो चले गए परन्तु उसका अभिमान अभी शेष था। दुनिया में किसी चीज को छोड़ना उतना कठिन नहीं है जितना कि उसे छोड़ने का अभिमान छोड़ना। जैसे, मैं सोचूँ-मैं घर-द्वार छोड़कर संन्यासी बना परन्तु कोई मेरे पाँव नहीं छूता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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