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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
9.सनत्कुमारों द्वारा भागवत सप्ताह व उसकी विधि
इसके बाद सनत्कुमारों ने भागवत कथा श्रवण की विधि बताई कहते हैं कि मुहूर्त निकालना चाहिए, तैयारी करनी चाहिए, लोगों को आमंत्रण देना चाहिए। बोलना चाहिए कि यहाँ कथा होने वाली है, आप अवश्य आइये। श्रोता-वक्ता दोनों को भक्तिपूर्वक, श्रद्धापूर्वक आना चाहिए। वक्ता को बड़ी श्रद्धा से कथा कहनी चाहिए। और इसका ध्यान रखना चाहिए कि श्रवण में कोई बाधा न पड़ जाए। इसलिए इतना अधिक भोजन नहीं करना चाहिए कि बैठ ही न सकें। तो नियमपूर्वक, भली प्रकार से कथा सुनने और कहने से बड़ा आनन्द आता है। इस प्रकार भागवत कथा की विधि बताने के बाद पूरी भागवत कथा वहाँ पर बतायी गयी। कथा की समाप्ति पर शुकदेव जी साक्षात् वहाँ पधार। सोलह वर्ष के शुकदेव जी हैं। उनके प्रवेश करते ही सब-के-सब लोग खड़े हो गये।
शुकदेव जी कहते हैं- अरे! यह भागवत रस तो स्वर्गादिलोको में भी प्राप्त नहीं होता। ‘निगमकल्पतरोर्गलितं’ वेदरूपी कल्पवृक्ष का यह एकदम पका हुआ फल है। शुकमुखादमृतद्रव संयुतं’ यह अमृत है। तोते का चखा हुआ फल एकदम रसीला होता है। ‘शुक’ का अर्थ तोता भी होता है। और शुकदेव जी भी। ये तो वैरागी परमहंस हैं फिर भी इन्होंने इसका रसास्वादन किया है। और प्रायः फल को तो, खाया जाता है लेकिन यह कहाँ इस फल को पी लो। यह रसरूपी फल है। इसमें कुछ भी त्याज्य है ही नहीं, रस ही रस है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भा.मा. 6.83
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