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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
17.पुरञ्जनोपाख्यान
तब नारदजी उसे एक कथा सुनाते हैं। ‘पुरञन आख्यान’ नामक यह एक रूपक है। देखो, बहुत लोग यही समझते हैं कि पुराणों में केवल कहानियाँ ही हैं, सब कल्पना ही है। वास्तव में ऐसा नहीं है। जहाँ पर कल्पना होती है, वहाँ पर भागवत में स्पष्ट ही बताया है कि यह काल्पनिक कथा है वास्तविक नहीं है। संक्षेप में वह कथा ‘पुरञ्जनाख्यान’ इस प्रकार है। पुरञ्जन नाम का एक राजा था। उसका एक मित्र था ‘अविज्ञात’, जिसका नाम किसी को मालूम नहीं था। यह पुरन्जन राजा नगरी बनाने के लिए सारी पृथ्वी में घूमता है। तब उसको एक नौ द्वार वाली नगरी दिखाई देती है। उसी समय वहाँ एक सुन्दर स्त्री भी आती है, अपनी दस सखियों के साथ। साथ ही पाँच सिरों वाला एक सर्प उसकी रक्षा करता आ रहा है। पुरञ्जन उसे देखकर उस पर मोहित हो जाता है। और उससे पूछता है कि तुम कौन हो? यहाँ क्यों आई हो? किसकी कन्या हो? वह कहती है - यह सब न मैं जानती हूँ न ही इन बातों का कोई प्रयोजन है। आओ मेरे साथ गृहस्थाश्रम का सुख भोगो। वह उसकी बात मान लेता है। दोनों बड़े आराम से साथ-साथ रहने लगते हैं। साथ रहते-रहते पुरञ्जन उसमें इतना आसक्त हो जाता है कि जब वह गाती है तो यह भी गाने लगता है, वह रोती है तो यह भी रोने लगता है, वह बैठती है तो यह भी बैठता है, और वह सोती है तो यह भी सो जाता है।
वह शराब पीती है तो यह भी शराब पीता है, वह दौड़ती है तो यह भी दौड़ता है। इस प्रकार वह उस स्त्री में इतना आसक्त हो गया कि उसके हाथ का ‘क्रीड़ामृग’, खिलौना हो गया। यद्यपि वह बाहर से बड़ा शूरवीर बनता था। जंगल में जाता और बहुत सारे पशुओं को मारता। परन्तु घर लौटने पर जब उसे पता चलता कि उसकी पत्नी नाराज है तो काँपने लगता, रोने लगता। उससे कहता, ”प्रिये क्या तुम मुझसे नाराज हो?“ उसे मनाने लगता कि मैं तुमको क्या दूँ। उसको प्रसन्न करने का हर संभव प्रयास करता और जब वह हँसने लगती तो यह भी प्रसन्न होकर हँसने लगता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 4.25.57
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