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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
19.बद्ध, मुक्त तथा भक्त के लक्षण
अगले अध्याय में भगवान कहते हैं कि शुद्ध आत्म तत्त्व के ऊपर अविद्या, अज्ञान के कारण अनेक प्रकार के आरोप हो गए हैं। व्यक्तिगत दृष्टि से देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, प्राण आदि का, तथा समष्टि या सृष्टि की दृष्टि से आकाश, वायु, जल, अग्नि, पृथ्वी, नदी, पहाड़ आदि का आरोप हुआ हे। शास्त्रीय भाषा में इसे भी अध्यास कहते हैं। अब हमारी स्थिति ऐसी हो गयी है कि अपनी देह तथा नदी, पहाड़ आदि दृश्य जगत में हमारी सत्य बुद्धि हो गई है। सर्वाधार भगवान जिन पर यह सारी सुष्टि स्थित है, वे हमें दीखते नहीं। हमें उनका भान भी नहीं होता। भगवान कहते हैं - आत्माधिष्ठित, आत्मा पर भासित होने वाले इस अध्याय को, भ्राँति को दूर करना चाहिए, इसे मिटा देना चाहिए। ऐसा कहने पर सहज रूप से प्रश्न यह उठता है कि उसे किस प्रकार दूर करें? उसे दूर करने का उपाय क्या है?
पूर्व चर्चित होने के कारण, इस प्रसंग में इसका उपाय संक्षेप में बता रहे हैं। कहते हैं - सर्वप्रथम अत्यन्त श्रद्धा भक्ति के साथ अपने स्वधर्म का पालन करना चाहिए। ऐसा करने से मन शुद्ध होने लगता है और तब ज्ञान की प्राप्ति की इच्छा - जिज्ञासा प्रबल हो जाती है।
इसके पश्चात् कर्म बाहुल्य यानी ज्यादा कर्म या कर्म की अधिकता में नहीं पड़ना चाहिये। देखो, भगवान श्री शंकराचार्य जी ने अपने ‘साधना पञ्चकम्’ में भी कहा है कि वेद पढ़कर अपने कर्तव्य कर्मों को समझना चाहिए और उन्हें भगवान की पूजा समझकर करना चाहिए। तब मन शुद्ध होता है। उसके बाद ही आत्म-ज्ञान की तीव्र जिज्ञासा उत्पन्न होती है। तब ‘निजगृहात्तूर्ण विनिर्गम्यताम्’[3] अपने घर से शीघ्र निकल पड़ना चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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