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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
42.श्रीकृष्ण-बलराम का मथुरागमन
श्रीकृष्ण ने कंस के निमन्त्रण के बारे में नन्दबाबा को बताया और नन्दबाबा ने सारे गोपों को आज्ञा दे दी कि कल प्रातः दंगल में सम्मिलित होने के लिए मथुरा चलना है, उसकी तैयारी कर लें। दूध और अन्य सामग्री एकत्रित कर लें और छकड़ों को भी जोड़ लें। अगले दिन बैलगाड़ी पर सारा सामान लादा गया। अक्रूर जी ने श्रीकृष्ण व बलराम को अपने रथ में बैठने के लिए कहा। तब नन्द आदि गोप तथा गोपबाल सब अपने-अपने छकड़ों पर सवार हो गये। उनको पता ही नहीं कि ये श्रीकृष्ण तथा बलराम अब हमेशा के लिए यहाँ से चले जाने वाले हैं। वे सब बड़े ही सीधे-सादे हैं न इसलिए। तो तैयारी करके वे सब चल पड़े। श्रीकृष्ण देखो कैसे हैं। उस समय वे गोपियों से बात तक नहीं करते, उनके पास जाते ही नहीं। वहीं रथ पर बैठे रहे और वे बेचारी प्रतीक्षा कर रही हैं कि हमारे पास आकर कुछ तो बात करेंगे, कुछ सान्त्वना देंगे। लेकिन ये नहीं जाते। उस समय लज्जा त्याग कर वे रोने लगीं। भगवान ने देखा, लेकिन वे उनके सामने जाने का साहस ही नहीं जुटा सके। उनको लगा यदि मैं उनके पास गया तो मैं वहाँ से निकल ही नहीं पाऊँगा। ऐसा सोचकर उन्होंने दूत को भेजा। दूत से कहा कि जाकर उनसे कहो कि ‘आयास्य इति’ मैं उनसे मिलने के लिए वापस आऊँगा। ‘मैं वापस आऊँगा’ यह बात स्वयं कहने की हिम्मत नहीं हुई उनकी। जब तक रथ के चलने से धूल उड़ती हुई दिखाई देती रही, तब तक वे वहीं पर खड़ी हो कर देखती रहीं। वापस जाकर वे क्या करतीं? उनके तो मानो प्राण ही चले गये। संत मीराबाई ने बहुत अच्छा पद लिखा है। ‘सखी लाज बैरन भई’ अपनी सखी से कहती हैं- मैं भगवान के साथ चली जाना चाहती थी। कूदकर रथ में बैठना चाहती थीं लेकिन ये लज्जा-संकोच मेरे शत्रु बन गये। मैं यहीं रूक गई। एक क्षण की गलती के कारण अब मुझे हमेशा के लिए यहाँ रोते रहना पड़ेगा। मैं बाल गोपाल के संग क्यों नहीं गई? ‘सखी लाज बैरन भई’ देखो, ऐसा है गोकुलवासियों का प्यार! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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