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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
3.यदुवंशियों को ब्रह्मशाप
श्री शुकदेव जी कहते हैं कि जब भगवान ने निश्चय कर लिया कि धराधाम से जाने से पूर्व सात्त्विक वृत्ति रूपी यदुवंशियों को भी समाप्त करके जाना है, तब वे सोचने लगे कि उन्हें कैसे मिटाया जाए? बोले ब्रह्मशाप से! देखो, ब्रह्म के उपदेश से ही वृत्ति मात्र बाधित होती है, यही तात्पर्य है ब्रह्म शाप से मिट जाने का। वरना यदुवंशियों को मार दे ऐसा कौन हो सकता था। ब्राह्मणों के शाप के अतिरिक्त वे और किसी भी निमित्त से नहीं मर सकते थे। उन्हे नष्ट करने की शक्ति और किसी में नहीं थी। इसीलिए भगवान ने उन्हें ब्रह्मशाप दिला दिया। खेल-खेल में यदुवंशी युवकों ने ऋषियों का - ब्राह्मणों का अपराध कर दिया और उसी कारण उनके शाप के पात्र बन गए। वास्तव में यह सब भगवान की माया है। भगवान ने अपने संकल्प से ही यह सब कराया था। वह किसलिए? यदुवंशियों को भी वहाँ से हटा देने के लिए, निर्द्वन्द्व स्थिति स्थापित करने के लिए! देखो, रामावतार में तो भगवान सबको अपने साथ लेकर गए थे, लेकिन कृष्णावतार में वे सबकों नष्ट करके जाते हैं। रामावतार तथा कृष्णावतार दोनों को सतही दृष्टि से देखने पर उनमें बड़ा विरोधाभास दीखता है। जहाँ रामचन्द्र जी सारे अयोध्यावासियों को साथ लेकर गए, वहीं श्रीकृष्ण सारे द्वारिका वासियों को खत्म करके जाते हैं। दोंनों बातें वैसे तो विपरीत दीखती हैं, पर दोनों का तात्पर्य एक ही है। एक विधि प्रधान है, तो दूसरी निषेध प्रधान। जैसे, जब अन्वय पद्धति से उपदेश किया जाता है। तो कहते हैं कि सब कुछ भगवान ही हैं और जब व्यतिरेक पद्धति से उपदेश होता है तो कहते हैं कि भगवान ही हैं और दूसरा कुछ है ही नहीं। इस तरह दो प्रकार से विचार किया जाता है। वेदान्त में ये दो प्रक्रियाएँ होती हैं, एक अन्वय की पद्धति और दूसरी व्यतिरेक की। चाहे कहो कि जो कुछ भी दिखायी दे रहा है, वह सब भगवान ही है, ब्रह्म ही है ‘सर्व खलु इदं ब्रह्म’[1] या फिर यह कहो कि भगवान के अतिरिक्त कुछ है हीं नहीं ‘नेह नानाऽस्ति किंचन’'[2] गर्भवती स्त्री का -सा उसका वेश बना दिया उन सबने। फिर उसे लेकर वे सब ऋषियों के पास जाते हैं। और बनावटी नम्रता पूर्वक उनसे कहते हैं, ‘‘भगवन्! यह नवयुवती गर्भवती है। यह जानना चाहती है। कि इसके गर्भ से पुत्र उत्पन्न होगा कि पुत्री? आप कृपा करके इसे बता दीजिये। स्वयं पूछने में इस संकोच हो रहा है।’’ वह साम्ब भी जो था, स्त्रियों के समान अभिनय करने में बड़ा कुशल था। लेकिन ऋषियों से क्या छिपा रह सकता है? वे समझ गए कि ये यदुवंश के युवक हमारे साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। उन्हें इस बात से क्रोध आ गया और क्रोध से भरकर उन्होंने कहा, ‘‘इसके गर्भ से न पुत्र होगा न पुत्री। एक लोहे का मूसल पैदा होगा और वह तुम्हारे समस्त कुल को नष्ट कर डालेगा।’’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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