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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
83.श्रीकृष्ण का मिथिला नरेश बहुलाश्व तथा श्रुतदेव ब्राह्मण के घर एक ही समय जाना
आगे शुकदेव जी वर्णन करते हैं कि मिथिला नरेश बहुलाश्व तथा मिथिला के ही निवासी श्रुतदेव नामक एक गृहस्थ ब्राह्मण, ये दोनों भगवान के प्रिय भक्त थे। उन दोनों को प्रसन्न करने के लिए, भगवान श्रीकृष्ण एक बार नारद जी, वामदेव, अत्रि आदि अनेक ऋषिगणों को साथ ले कर मिथिला नगरी में जाते हैं। राजा बहुलाश्व तथा श्रुतदेव दोनों साथ ही आकर भगवान से कहते हैं, “भगवान कृपा कर के आप समस्त ऋषिगणों सहित हमारे घर पधारिये।” वे दोनों ही चाहते थे कि भगवान पहले मेरे घर पधारें। भगवान सोचते हैं कि अब दोनों कार्य एक साथ कैसे करें? बोले, “अच्छा तुम लोग घर चलो मैं आता हूँ।” ऐसा कहकर भगवान ने उन दोनों को अपने-अपने घर भेज दिया। फिर भगवान ने दो रूप ले लिए और एक रूप से समस्त ऋषिगणों को साथ लेकर वे राजा बहुलाश्व के घर जाते हैं, और दूसरे रूप से गरीब ब्राह्मण के घर जाते हैं। देखो, भगवान ने यहाँ केवल अपने ही दो-दो रूप नहीं बना लिए थे, वरन् भगवान ने उन सारे ऋषिगणों के भी दो-दो रूप बना डाले थे। तभी तो एक ही समय वे सभी ऋषियों को साथ लेकर दोनों के घर जा सके। जिन भगवान ने अनेक ग्वाल बाल तथा उनके बछड़ों का रूप ले लिया था, उनके लिए यह कोई बड़ी बात नहीं थी। अब, राजा बहुलाश्व के यहाँ भगवान कई दिनों (अठ्ठाईस दिन) तक रहे क्योंकि एक राजा उतने समय तक उन सब का आतिथ्य कर सकता था। उसके लिए वह सम्भव था। यद्यपि भगवान उस ब्राह्मण के घर पर भी उतने ही समय तक रुके थे, तथापि उसे लगा जैसे एक ही दिन बीता है। वह इसलिए कि अधिक समय तक सबका आतिथ्य करना उस गरीब ब्राह्मण के लिए कठिन हो जाता। यहाँ इस प्रसंग से हमें एक बात यह समझ लेनी चाहिए कि हर जगह पर हमारा स्वागत उसी प्रकार से हो, ऐसी अपेक्षा नहीं होनी चाहिए। जो दाल-रोटी खाने-खिलाने वाला हो उससे पंचपकवानों की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। जो जैसा है, उससे वैसा ही आदरातिथ्य स्वीकार करना चाहिये। तो भगवान ने ब्राह्मण श्रुतदेव तथा राजा बहुलाश्व दोनों के आदरातिथ्य को एक ही समय स्वीकार किया, उन्हें प्रसन्न किया और सन्मार्ग का उपदेश देकर फिर उन्हें परमार्थ का बोध भी करा दिया। उस के बाद वे द्वारका लौट आए। अगले अध्याय में श्रुतियों के द्वारा भगवान की स्तुति का वर्णन है। एक-एक श्रुति द्वारा भगवान की शास्त्रीय रीति से स्तुति की गई है। उसके बाद ‘शिवाच्युतयोः स्वभाव वैलक्ष्यण्यं’ भगवान शिव तथा भगवान विष्णु के स्वभाव में जो भेद है वह बताया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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