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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
20.सत्संग की महिमा
भगवान शंकराचार्य जी ने भी ‘भज-गोविन्दम्’ में सत्संग की महिमा गाई है। सत्संग से हमारी विषयासक्ति कम हो जाती है और मन का विवेक जाग्रत हो जाता है। विवेक की जाग्रति से सत्य-असत्य का भेद समझ में आने लगता है और फिर तत्त्व का बोध भी हो जाता है। ‘ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः’[2] तत्त्व का बोध हो जाने पर संसार नहीं रहता। भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, ”सत्संग के प्रभाव से ही व्याध, गणिका, गज, अजामिल, विभीषण, निषादराज, गीध (जटायु), शबरी, सुग्रीव तथा न जाने कितने पशु-पक्षी और हीन जाति के लोग भी सब मुक्त हो गये। इतना ही नहीं जिन गोपियों ने काम भाव से भी मेरा संग किया वे सब भी निष्काम हो गयीं।“
”अतः सब छोड़ कर तुम मेरी शरण में आ जाओ। तुमको भय से मुक्ति मिल जायेगी।“ इतना श्रवण करने के पश्चात् भी उद्धव जी कहते हैं, ”भगवान आप समझा रहे हैं, मैं सुन रहा हूँ और मुझे सुनने में रस भी आ रहा है। तथापि, सभी बातों को मैं भली प्रकार से समझ नहीं पा रहा हूँ।“ देखो, यहाँ उद्धव जी जैसे हमारे ही मन की बात कह रहे हैं। कहते हैं, ”भगवान आप मुझे अच्छी तरह समझाइये कि मुझे क्या करना चाहिए? सब छोड़कर आपकी शरण ग्रहण करना चाहिए या अपने स्वधर्म का पालन करना चाहिए?“ उद्धव जी को उत्तर देते हुए भगवान कहते हैं कि परोक्ष परमात्मा ही साक्षात् अपरोक्ष हैं। सब रूपों में मैं ही प्रकट होता हूँ। माया का आश्रय लेकर संसार वृक्ष के रूप में परमात्मा ही - मैं ही अभिव्यक्त होता हूँ। इस तत्त्व ज्ञान को ‘गुरुपासनयैकभक्त्या’ गुरु की उपासना रूपी अनन्य भक्ति के द्वारा जान लो। ज्ञान रूपी तलवार से अज्ञान को, अपने जीव भाव को काट कर परमात्मस्वरूप में स्थित हो जाओ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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