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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
2.दक्ष यज्ञ में सती जी का आत्म दहन
इस घटना को बहुत समय बीत गया। कैलाश में शंकर जी और वहाँ अपने घर दक्ष, दोनों के ही मन में बात गड़ कर रह गई। इसी बीच ब्रह्मा जी ने दक्ष को समस्त प्रजापतियों का अधिपति बना दिया, तो इससे दक्ष का अभिमान और भी बढ़ गया। उसने पहले वाजपेय यज्ञ किया, फिर ब्रहस्पतिसव नामक महायज्ञ प्रारम्भ किया। उस उत्सव में सारे ब्रह्मर्षि, देवर्षि, पितर, देवता आदि सब-के-सब अपनी-अपनी पत्नियों सहित सज-धज कर जा रहे थे। आकाश मण्डल में उन सब को विमानों से जाते हुए सती जी ने देखा। जाते हुए देवतागण उस यज्ञ की चर्चा कर रहे थे। सती जी ने वह सब सुन लिया। वह सब देख-सुन कर उनके मन में भी पिता के घर, उस यज्ञोत्सव में जाने की उत्सुकता जगी तो वे शिवजी से कहने लगीं, ”स्वामी मेरा भी पिता जी के घर जाने का बहुत मन कर रहा है। मैं वहाँ जाऊँगी, अपनी माँ से, बहनों और अन्य प्रियजनों से मिलूँगी। अतः यदि आप चाहें तो हम भी इस यज्ञोत्सव में चलें। आप बड़े करुणामय हैं, आप मेरी इस याचना पर ध्यान दें और मेरी इच्छा पूर्ण करके मुझे अनुगृहीत करें।“ यह सुनकर भी, जब शंकर जी चुप रहे, तो वे कहती हैं, ”उन्होंने आमंत्रण नहीं दिया है, यह तो सच बात है, लेकिन पिता के घर जाने के लिए किसी निमंत्रण की क्या जरूरत है? आंमत्रण की प्रतीक्षा क्यों की जाए?“ शिवजी ने कहा, ”तुम जो कह रही हो कि माँ से मिलना है, सो तो ठीक है। निमंत्रण की जरूरत नहीं, वह भी ठीक है। लेकिन दक्ष के मन में मेरे लिए बड़ा द्वेष हैं।“ देखो, अब तक सती जी को इस बारे में कुछ पता ही नहीं था। शिवजी ने कभी आकर उनको बताया ही नहीं था कि कभी प्रजापतियों के यज्ञ के समय दक्ष ने उनका किस तरह अपमान किया था। अब समय आया है, तो बता रहे हैं और वह भी - मेरा अपमान किया - आदि कुछ नहीं बोलते, बस इतना ही कहते हैं कि दक्ष के मन में मेरे लिए द्वेष है इसलिए जान बूझकर हमें निमंत्रण नहीं भेजा गया है। जब जान बूझकर निमंत्रण नहीं भेजा गया हो, तब वहाँ कैसे जाया जाए? ऐसी स्थिति में वहाँ जाने से तो अपमान ही होगा। अतः तुम मत जाओ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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