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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
14.राजा पृथु का प्रजा को उपदेश
एक बार उन्होंने सभा में सब लोगों को बुलाया। और कहा - देखो, राजा का यह कर्तव्य होता है कि वह प्रजा को अपनी नीतियों से परिचित कराए। जैसे हमारे यहाँ राष्ट्र के लिए सन्देश होते हैं, प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति राष्ट्र के लिए सन्देश प्रसारित करते हैं, पन्द्रह अगस्त व छब्बीस जनवरी को। यहाँ पर राजा ने सभा बुलायी और कहा -
आप सब लोग यहाँ आये हैं। अब मैं आप सब को यह बताने जा रहा हूँ कि मैं कौन सी नीति पर चल रहा हूँ, मेरा अर्थात् राजा का, क्या कर्तव्य होता है, और मैं उसे किस प्रकार निभा रहा हूँ। फिर यह भी बताऊँगा कि प्रजा का यानी आप सब का क्या कर्तव्य होता है। यह बताना भी मेरा कर्तव्य बनता है। यदि प्रजा को मालूम ही न हो कि राजा हम से क्या अपेक्षा रखता है, तो बात नहीं बनती। आजकल सब ऐसा ही चल रहा है। अपनी सरकार में किसी को पता ही नहीं चलता कि करना क्या है? अतः कोई भी निर्णय लेने या कुछ करने के लिए तैयार ही नहीं होता।
राजा के चार मुख्य काम होते हैं। एक तो ‘रक्षिता’ - यानी राजा का पहला काम यह है कि सबकी सुरक्षा की व्यवस्था करे, उसके लिये नियम, कानून भी बनाए। दूसरा काम है ‘वृत्तिदः’ - रोजगार देना, और तीसरा - ‘स्वेषु-सेतुषु स्थापिता पृथक्’ सब लोग अपनी-अपनी धर्म-मर्यादा, अपने-अपने काम में निष्ठा-पूर्वक लगे रहें यह देखना। उसी प्रकार जो लोग काम नहीं करते उनको दण्ड देना और जो अपना काम ठीक तरह से करते हैं उन्हें किसी-न-किसी प्रकार से प्रोत्साहित करना। ये सब राजा के मुख्य कार्य होते हैं। मैं इन कार्यों को कर रहा हूँं। जो राजा प्रजा से केवल कर वसूल करता है लेकिन धर्म शिक्षा नहीं देता वह राजा प्रजा के पाप ग्रहण करता है। आगे यह बताना प्रारंभ करते हैं कि प्रजा को क्या करना चाहिए। इसी संदर्भ में कहते हैं कि पहले एक बात समझ लो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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