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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
79.बलराम जी की तीर्थयात्रा
कुछ दिनों बाद, जब पता चला कि कौरव तथा पाण्डवों के बीच युद्ध होने वाला है, तो बलराम जी तीर्थ यात्रा करने चले गए क्योंकि वे मध्यस्थ थे, दोनों में से किसी भी पक्ष से लड़ना नहीं चाहते थे। अनेक तीर्थों से होते हुए वे नैमिषारण्य पहुँच गए। वहाँ बड़े-बड़े ऋषिगण एक विशेष व लम्बे सत्संग सत्र के लिए एकत्रित थे। वहाँ बलराम जी ने देखा कि सूत जाति में उत्पन्न रोमहर्षण जी व्यास गद्दी पर सबसे ऊपर विराजमान हैं और वे वन्दन भी नहीं करते, उठकर स्वागत भी नहीं करते। बलराम जी को लगा कि व्यास शिष्य रोमहर्षण में न तो विनय है, न ही उनका आचरण धर्म शास्त्रों के अनुरूप है। तब उन पर क्रोधित होकर बलराम जी ने कुशा की एक नोक से रोमहर्षण पर प्रहार कर दिया। उतने से ही रोमहर्षण की मृत्यु हो गयी। सारे ऋषिगण हा हा करने लगे। उन सब ने बलराम जी से कहा कि यद्यपि हम जानते हैं कि आप योगेश्वर हैं, वेदशासन से परे हैं, तथापि यह बड़ा ही अधर्माचरण हो गया है। यह ब्रह्महत्या के समान है। अतः लोक शिक्षा के लिए आप स्वयं ही कोई प्रायश्चित कर लें तो अच्छा होगा। तब बलराम जी ने उन्हीं से उसका विधान करने के लिए कहा और फिर वैसा ही किया। उन्होंने कहा कि रोमहर्षण के पुत्र को मैं दीर्घ आयु, इन्द्रिय शक्ति तथा बल प्रदान करता हूँ। यही अब आप सब को कथा सुनाएँगे। फिर ऋषियों की इच्छा पूर्ति करने के लिए बलराम जी ने बल्वल नामक भयंकर दानव का उद्धार किया। उसके बाद अनेक स्थानों पर होते हुए, कौरव व पाण्डवों से मिलकर वे द्वारका लौट आए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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