विषय सूची
श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
2.वराह-अवतार
अब मनु भगवान ब्रह्माजी को नमस्कार करते हैं और कहते हैं, ‘‘आपके आदेश का पालन करने के लिए मैं तैयार हूँ, परन्तु पहले हमें रहने के लिए कोई स्थान चाहिए।’’ ऐसा होता भी रहता है, है न? आजकल लड़के की शादी कर देने मात्र से नहीं चलता, उसके लिए फ्लैट भी देना पड़ता है। उसके माता-पिता को ही यह चिन्ता रहती है कि अब इसको रहने के लिए एक घर भी हो। बोले पृथ्वी को तो, हिरण्याक्ष नाम का असुर रसातल में ले गया है। अब रहने के लिए कोई स्थान ही नहीं है। तो क्या करें? ब्रह्माजी भी चिन्तित होने लगे कि उस हिरण्याक्ष को मैंने ही वरदान दिया है, अतः मै स्वयं तो उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता। उसकी कथा हम आगे देखेंगे। ब्रह्माजी चिन्ता कर ही रहे थे कि उनकी नाक से एक छोटा-सा सुअर-वराह निकला। ऐसा सुनने पर हमें लगता है पुराणों में ये कैसी बातें लिखी जाती है। गुरुशिष्य परम्परा से ज्ञान प्राप्त न हो, तो वास्तव में यही लगता है कि क्या ऊटपटाँग बातें लिखते हैं। देखते-देखते वह छोटा-सा वराह हाथी जैसा बड़ा हो गया और वहाँ से चल पड़ा। चल कर उसने सीधे समुद्र में प्रवेश किया। समुद्र में जाकर जब वह पृथ्वी को उठकार ऊपर लाने लगता है, तो हिरण्याक्ष उसे रोकने के लिए आता है और मारने लगता हैं। लेकिन वराह भगवान पृथ्वी को पहले समुद्र से बाहर लाकर रख देते हैं, स्थापित कर देते है। और फिर उसी वराह द्वारा हिरण्याक्ष का वध होता है। तब सारे देवता, ऋषि, मुनि सब वराह भगवान की स्तुति करने लगते हैं -
आप जीत गए, जीत गए! ‘नमः कारणसूकराय’ आप कारणसूकर हैं। कारणसूकर के दो अर्थ होते हैं एक अर्थ है- ये वराह रूप में- सूकर रूप में, कार्य के रूप में दिखाई तो दे रहे हैं, लेकिन ये कार्य नहीं हैं- समस्त जगत् के कारण है। तो सूकर रूप में दिखाई देते हुए भी ये जगत् के कारण हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 3.13.34
संबंधित लेख
क्रमांक | विवरण | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज