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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
80.श्रीकृष्ण के सखा सुदामा जी की कथा
इसके बाद भगवान के प्रिय सखा सुदामा जी का प्रसंग आता है। भगवान श्रीकृष्ण जब वेदाध्ययन के लिए सान्दीपनि ऋषि के गुरुकुल में गए थे, तब वहाँ एक सुदामा नाम का ब्राह्मण भी विद्यार्थी था। वहीं पर श्रीकृष्ण व सुदामा दोनों घनिष्ठ मित्र बन गए थे। दोनों साथ-साथ रहते थे। सुदामा श्रीकृष्ण से बहुत प्यार करते थे। उनके गुरुकुल वास के समय की एक कथा है जो श्रीमद्भागवत में तो नहीं है पर महात्मा लोगों ने उसका वर्णन किया है। जब श्रीकृष्ण तथा सुदामा अपने गुरुजी की पत्नी के कहने पर लकड़ी लाने के लिए जंगल में गए थे, तब तेज वर्षा हो जाने से उन्हें एक जगह पर रुकना पड़ गया। दोनों को ठंड भी बहुत लग रही थी। अब सुदामा जी को भूख भी लग गई। उनके पास कुछ चने रखे थे तो वे उन्हीं को चुपचाप खाने लगे। भगवान को दिये बिना वे अकेले ही खा रहे थे। जब कुडुम-कुडुम की आवाज आयी तो भगवान ने कहा, “क्या हो रहा है? (भगवान को भी भूख लगी थी) किस चीज की आवाज आ रही है?” बोले-मैं ठंड के मारे ठिठुर रहा हूँ तो मेरे दाँत बज रहे हैं। सुदामा ने ऐसी बात कही। लगता है इसीलिए सुदामा जी के जीवन में बहुत दारिद्रय आ गया। भगवान को कुछ दिया नहीं, तभी तो गरीबी आ गयी। द्वारका से कुछ ही दूरी पर उनका गाँव था। साथ में उनकी पत्नी भी थी। सुदामा जी बड़े विद्वान् होते हुए भी अति दरिद्र अवस्था में थे। विरक्त स्वभाव वाले होने के कारण न तो जीवन यापन के लिए वे अधिक कोई कार्य करते थे न ही किसी से कुछ माँगते। भगवान का नाम लेते रहना-यही उनका काम था। बहुत ज्यादा काम करने की प्रकृति ही नहीं थी उनकी। इसका अर्थ यह नहीं कि वे आलसी थे, श्रीकृष्ण के प्रति उनके मन में सदा ही इतना प्रेम उमड़ता रहता था कि उनके अंग प्रेम से शिथिल हो जाते थें उनसे कुछ काम बनता ही नहीं था। अति प्रेम के कारण वे भगवत स्मरण में डूबे रहते थे। सुदामा जी प्रायः अपने सखा श्रीकृष्ण की याद किया करते थे। कहते थे कि श्रीकृष्ण और मैं साथ-साथ पढ़ते थे। सुना है अब वह द्वारका का राजा हो गया है। उसका वैभव विष्णु भगवान के समान है। वहाँ की शोभा, वहाँ का ऐश्वर्य, वैकुण्ठ के समान है। यह सब उनकी पत्नी कई बार सुन चुकी थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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