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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
72.राजा पौण्ड्रक की कथा
इस बीच, जब बलराम जी व्रज में थे, तब कुरूष देश के एक अज्ञानी राजा पौण्ड्रक को उसके कुछ मूर्ख साथियों ने बहका दिया कि सच्चे वासुदेव तो तुम ही हों। द्वारका में जो श्रीकृष्ण है, वह भले ही वासुदेव कहलाता हो, पर वह असली वासुदेव नहीं है। वह जबर्दस्ती शंख-चक्र आदि धारण किये बैठा है। सब लेकर नाटक कर रहा है। उनकी बातों में आ कर, वह पौण्ड्रक अपने आप को वासुदेव मानने लगा। वह अपने हाथ में चक्र (लकड़ी का) रखने लगा। उसने लकड़ी के दो और हाथ भी बनवा लिये। इतना ही नहीं, उसने लकड़ी का ही एक गरूड़ भी बनवा लिया। उसमें भी चक्र आदि लगवाकर उड़ने का प्रबन्ध करा लिया। ग्लाइडर जैसी कोई चीज बनवा ली उसने। फिर उन साथियों के बहकावे में आकर पौण्ड्रक ने श्रीकृष्ण के पास अपना दूत भेज दिया। देखो, हमारी वर्तमान की राजनीति में भी यह सब बहुत हो रहा है। कोई कहता है हम असली काँग्रेसी हैं, तो कोई वे असली नहीं है। कहने का अर्थ है आज भी पौण्ड्रक बहुत हैं। यह असली है कि वह, इस बात का झगड़ा चलता रहता है। यह कोई नई बात नहीं है। वह दूत द्वारका पहुँच कर राज सभा में बैठे हुए श्रीकृष्ण को अपने राजा का संदेश सुनाते हुए कहता है, “मैं ही एक मात्र वासुदेव हूँ तुम कौन हो जो झूठ-मूठ अपने आप को वासुदेव कहकर विष्णु भगवान के आयुध तथा चिह्नों को धारण किए बैठे हों? मेरी शरण में आकर उन सबका समर्पण कर दो। अन्यथा मेरे साथ युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।” सुनकर सभा में उपस्थित मन्त्रीगण तथा उग्रसेन आदि सभी हँसने लगे। भगवान उस दूत से कहते हैं, “जाकर अपने राजा से कह देना कि मैं इन चिह्नों केा अवश्य छोडूँगा, तुम पर ही नहीं तुम्हें बहकाने वाले तुम्हारे साथियों पर भी छोडूँगा।” दूत ने जाकर राजा पौण्ड्रक को सारी बातें कह सुनाईं। पौण्ड्रक का साथ देने वाला था काशी नरेश। पता नहीं क्यों उसे भगवान श्रीकृष्ण से बड़ी चिढ़ थी। वह पौण्ड्रक से कहता था लड़ना पड़े तो मैं तुम्हारा साथ दूँगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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