विषय सूची
श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
2.हिरण्याक्ष वध के बाद हिरण्यकशिपु का स्वजनों को उपदेश
हिरण्यकशिपु को जब अपने भाई के बध का समाचार मिला तो वह बहुत दुःखी, व्याकुल और क्रोधित हो गया। उसने सारे दानवों को बुलाया और उनसे कहा -अपने अस्त्र-शस्त्र लेकर जाओ और जहाँ कहीं मंदिर दिखाई दें, उनको तोड़-फोड़ डालो, जहाँ यज्ञ-याग चल रहा हो उसे ध्वस्त कर डालो, जो कोई साधु जप-तप करता दिखाई दे उसे मार डालो। जहाँ कहीं भी कोई धर्म की बात दिखाई दे तो उसको खत्म करो, क्योंकि ये ही सारे विष्णु भगवान के रहने के स्थान हैं। इन स्थानों को ध्वस्त कर डालोगे तो भगवान विष्णु की शक्ति खत्म हो जाएगी। अच्छा? लगता है जैसे विष्णु भगवान की शक्ति मंदिरों के कारण ही है। हिरण्यकशिपु कहता है इन सबको खत्म कर डालो - ब्राह्मणों को, मंदिरों को, यज्ञ को, गायों को। देखो, लूट-मार करने वाले लोगों को वैसे भी तोड़-फोड़ करना अच्छा लगता है। हिरण्यकशिपु का आदेश सुनकर मारो-काटो कहते हुए वे सब दौड़ पड़े। सारे दैत्यों को आदेश देकर हिरण्यकशिपु घर आया। उसके रिश्ते-नाते वाले सभी स्वजन हिरण्याक्ष के वध का समाचार सुनकर रो रहे थे, तो उन सब को वह वेदान्त का लम्बा-चौड़ा भाषण देता है। जिसका जन्म होता है उसका नाश होना ही है, लेकिन आत्मा अमर है। देखो, यहाँ स्पष्ट हो जाता है कि ये असुर लोग भी देह से पृथक आत्मा का अस्तित्व मानते थे। ये असुर तप भी करते थे, यज्ञ भी करते थ, वेदों को भी मानते थे। यज्ञ और तप की शक्ति को मानते थे, भगवान के अस्तित्व को भी मानते थे। लेकिन दया, जो धर्म का मूल है, वह इनके हृदय में किञ्चित् भी नहीं थी। उनकी दृष्टि में स्वयं का, अपना जो दुःख है वह तो सत्य होता है, परन्तु दूसरों का दुःख मिथ्या है, ऐसा उनका दर्शन है। अब देखो असुर किसको कहते हैं? ध्यान में रखना जो अपने दुःख को सत्य और दूसरों के दुःख को मिथ्या मानता है वह असुर है। संत किसे कहते हैं? जो अपने दुःख को मिथ्या और दूसरे के दुःख को सत्य माने वह संत है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विवरण | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज