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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
35.परमार्थ का निरूपण
उसके बाद भगवान ने परमार्थ का निरूपण किया है। परमार्थ में बताते हैं कि परमात्मा, अर्थात् तत्त्व, देश-काल-वस्तु-व्यक्ति सबके परे है। वह नाम, रूप, गुण, क्रिया, द्रव्य, सम्बन्ध आदि से मुक्त है, निर्विशेष है। उस स्वरूप में स्थित हो जाओ। उसमें स्थित होकर सारे जगत को देखो। किसी की स्तुति अथवा निन्दा मत करो। यह संपूर्ण जगत आत्मा ही है, ऐसा जानकर शान्त हो जाओ। परमार्थ तत्त्व में द्वैत का लेश मात्र भी नहीं है। ‘सर्वप्रपन्चोपशमम्’ जहाँ न नाम है, न रूप् है, न गुण है, न कोई व्यक्ति है, जहाँ समस्त प्रपंच शान्त हो जाता है, वहीं परमात्मा है, वही तत्त्व है। उद्धव जी पूछते हैं, ”भगवान यदि तत्त्व ऐसा है, तो हमें यह व्यापक जगत और उसमें घटने वाली असंख्य घटनाएँ क्यों दीखती हैं?“ भगवान कहते हैं, ”यही विद्या की वृत्ति है। अविद्या के कारण जो जहाँ नहीं है, वहाँ भासता है। जैसे रज्जु में सर्प दर्शन। यह वेदान्त का प्रसिद्ध दृष्टान्त है। इस दृष्टान्त से समझना यह है कि रस्सी की तरह यहाँ केवल परमार्थ तत्त्व है, यही सत्य है लेकिन जिस प्रकार रस्सी को न जानने के कारण सर्प दिखाई देता है, उसी प्रकार परमार्थ तत्त्व को न जानने के कारण यह जगत दिखाई देता है। और इस जगत के साथ तादात्म्य करके हम सुखी-दुःखी होते रहते हैं। समस्त उपदेशों को सुनने के पश्चात् उद्धव जी कहते हैं, ”भगवान आपने सब कुछ बता दिया, लेकिन परमार्थ की प्राप्ति का जो साधन बताया वह तो बड़ा कठिन लगता है। अतः उसके लिए कोई सरल साधन बता दीजिए जिससे अनायास ही मनुष्य केा परमार्थ की प्राप्ति हो जाए।“ भगवान ने कहा ठीक है, और सार रूप में बताया कि हम स्वयं को जिस वर्ण, आश्रम, स्थान पर पाते हैं और तदनुरूप हमारा जो कर्तव्य बनता है, उसे भगवान की पूजा समझकर करना चाहिए। ऐसा करते हुए मन शुद्ध हो जाता है, तब सत्संग करना चाहिए। इसके बाद वही पूर्वकथित क्रम है। महत्सेवा करने से श्रद्धा होगी, फिर रति होगी, भक्ति होगी और तब धीरे-धीरे यह सम्पूर्ण जगत मुझमे है, मैं जगत में हूँ, इस प्रकार का ज्ञान प्राप्त हो जायेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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