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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
2.भागवत-माहात्म्य
अब पद्यपुराण में प्राप्त भागवत माहात्मय की कथा का प्रारंभ होता है। इसमें छः अध्याय हैं। ‘नैमिषे सूतमासीनम्’ एक बार नैमिषारण्य में शौनकादि अट्ठासी हमार ऋषि जब यज्ञ कर रहे थे तब वहाँ पर सूत जी आते हैं। ये ‘सूत जी’ कौन हैं? भगवान वेदव्यास जी के शिष्य रोमहर्षण के पुत्र हैं। सूत एक जाति होती है जिसमें माँ ब्राह्मण जाति की होती है और पिता क्षत्रिय जाति के होते हैं। ऐसे विवाह को प्रतिलोम विवाह कहते हैं। उनका जो पुत्र होता है उसे सूत कहते हैं। ये सूत बड़े ज्ञानी थे। उन्होंने अपने पिता जी से सब कुछ सीख लिया था। ऋषियों की सभा में जाकर वे पुराण की कथा सुनाते थे। बड़े-बड़े ऋषि भी इनको नमस्कार करते थे, ऊँचे आसन पर बिठाकर इनसे कथा सुनते थे। अब पहले हम ‘नैमिषारण्य’ शब्द पर विचार करेंगे। इस का अर्थ दो रीति से लगाया जा सकता है। एक बार बहुत सारे ऋषि ब्रह्मा जी के पास जाकर पूछते हैं- महाराज हम कहाँ साधना करें? तो ब्रह्मा जी ने उसको एक घूमता हुआ चक्र दिया और बोले, ‘‘जहाँ यह चक्र स्थिर हो जाएगा ‘नेमिः शीर्यते यत्र तत् नैमिशः’ वह स्थान साधना के लिए उत्तम है।’’ जो जहाँ भगवान ने क्षण मात्र में सभी दैत्यों का संहार कर डाला था उस स्थान को ‘नैमिषारण्य’ कहते हैं। अर्थ दानों का एक ही हुआ। जहाँ पर हमारे मन की गति-वृत्तियाँ स्थिर हो जाती हैं या हमारी आसुरी वृत्तियाँ तत्क्षण समाप्त हो जाती हैं, वह ‘नैमिषारण्य’ है। जैसे, प्रायः लोग जब पहली बार किसी आश्रम में जाते हैं, तो कहते हैं- देखो यहाँ कितनी शान्ति है। कहीं-कहीं पहुँच कर लगता है कि मन को बड़ी शान्ति मिल रही है। ऐसे स्थान को ही नैमिषारण्य कहते हैं। ऐसे नैमिषारण्य में अट्ठासी हजार ऋषि यज्ञ कर रहे हैं, स्वर्गप्राप्ति के लिए कहीं-कहीं स्वर्ग प्राप्ति का अर्थ परमात्मा प्राप्ति होता है, परन्तु कर्मकाण्ड से प्राप्त स्वर्ग तो स्वर्गलोक ही होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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