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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
27.श्रीकृष्ण द्वारा अग्निपान
गौओं ने देखा कि गोपबाल क्रीड़ा में लगे हुए हैं। गायों को कहीं-न-कहीं हरी-हरी घास दिख ही जाती थी। यानी कितना भी कुछ करो, ये इन्द्रियाँ विषयों की ओर चली ही जाती हैं। अच्छी तरह समझते हैं कि भगवान के पास रहने में ही सुख है, शान्ति भी, लेकिन क्या करें मन विषयों में चला ही जाता है। कोई अच्छी किताब पढ़ रहे हों तब भी यह मन कहीं-कहीं चला जाता है। प्रवचन सुन रहे हों, तब भी जाता है, पूजा कर रहे हों, जप कर रहें हों, कुछ भी कर रहें हों मन अन्यत्र कहीं चला ही जाता है। यहाँ यह वर्णन बार-बार आता रहता है कि ये बछड़े या गायें और उनके पीछे ये ग्वालबाल कहीं-कहीं चले जाते हैं। अब कहाँ चले गए ये सब? दूर जंगल में मुंजाटवी में चले गये। वहाँ जाकर वे रास्ता भूल गए उन्हें प्यास भी लगी थी, वे थक भी गये थे। भगवान ने एक-एक का नाम लेकर पुकारा तब वे खुश होकर रँभाने लगीं। इतने में वहाँ आग लग गई। फिर आँधी चलने लगी। तो उस आग ने सबको चारों ओर से घेर लिया। जंगल में कभी-कभी पेड़ आपस में टकरा जाते हैं, तो आग लग जाती है, जिसे दावानल कहते हैं। देखो हमारा मन भी इसी प्रकार जब इन्द्रियों का पीछा करता हुआ निकल पड़ता है, चल पड़ता है तो वह कहाँ जाता है? विषयाग्नि में ही तो जाता है। और जैसे जंगल में अग्नि प्रकट होती रहती है, वैसे ही हमारे मन में कामाग्नि, क्रोधाग्नि, विषयाग्नि ये सारी उत्पन्न होती ही रहती हैं। विषयों की ओर ध्यान जाते ही, विषय चिन्तन प्रारम्भ होते ही बस! मन में आग लग जाती है। इसमें भी क्या कोई शंका हो सकती है किसी को? पहले वह कामाग्नि के रूप में प्रकट होती है, उसमे कोई विघ्न आ जाए तो वह क्रोधाग्नि हो जाती है। जब ऐसा लगने लगता है कि अमुक चीज मुझे चाहिए और यदि वह चीज किसी दूसरे को मिल जाए तो फिर वह अग्नि ईश्र्याग्नि हो जाती है। इस प्रकार न जाने कितने प्रकार की अग्नियाँ होती हैं। यहाँ भगवान ने पहले एक अग्नि से सब को बचाया, पर अब यह दूसरी अग्नि आसुरी अग्नि है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 10.19.1
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