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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
एकादश स्कन्ध
एकादश स्कन्ध मुक्ति स्कन्ध है, श्रीमद्भागवत का सार है। यद्यपि, सगुण लीला की दृष्टि से तो, दशम स्कन्ध ही भागवत का सार है, तथापि ज्ञान की दृष्टि से एकादश स्कन्ध का महत्त्व सर्वोपरि है। महाराष्ट्र के सन्तों में एकनाथ जी महाराज का नाम बड़ा प्रसिद्ध है। वे बहुत बड़े सन्त हुये। उन्होंने इस एकादश स्कन्ध पर बड़ी ही सुन्दर व्याख्या लिखी है। महाराष्ट्र में उसकी विशेष प्रसिद्धि है। एकनाथ जी महाराज पक्के अद्वैती थे। द्वैत की भाषा तो उन्हें आती ही नहीं थी। जिस प्रकार एकादशी का विशेष तात्पर्य होता है, उसी प्रकार इस एकादश स्कन्ध का भी यही तात्पर्य है कि हमें अपनी पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँचों कर्मेन्द्रियाँ तथा एक मन-इन ग्यारहों को भगवत् तत्त्व में मिला देना चाहिए। मुक्ति की परिभाषा हम पहले ही देख चुके हैं। शुकदेव जी ने (दूसरे स्कन्ध में) कहा था-
मुक्ति का अर्थ होता है अपने स्वरूप में स्थित हो जाना। अभी हम अपने स्वरूप से भिन्न किसी और ही स्थिति को प्राप्त हो गए हैं। इस अन्यथा स्थिति को छोड़कर अपने वास्तविक स्वरूप में, स्व-स्वरूप में स्थित हो जाने को ही ‘मुक्ति’ कहते हैं। देखो, मोक्ष के विषय में लोगों के मन में बड़ी विचित्र धारणाएँ होती हैं, भिन्न-भिन्न विचार होते हैं। कोई सोचता है स्वर्ग में जाना मोक्ष है। कोई सोचता है भगवान के लोक में, भगवान के पास जाना मोक्ष है, या फिर भगवान के समान ऐश्वर्य प्राप्त करना अथवा भगवान के जैसा रूप प्राप्त करना मोक्ष है। किसी को लगता है जन्म-मरण के पिण्ड से छुटकारा पा जाना या पुनः जन्म नहीं लेना मोक्ष है। ऐसी नाना प्रकार की धारणाएँ होने के कारण, जरा अच्छी तरह से विचार कर के समझ लेना चाहिए कि वास्तव में मोक्ष किसे कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2.10.6
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