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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
18.यमलार्जुन का उद्धार
वहाँ पास ही में यमलार्जुन नामक दो पेड़ थे। नलकूबर और मणिग्रीव ये दोनों कुबेर के पुत्र थे। नारद जी के शाप के कारण ये पेड़ बन गये थे। एक बार, श्रीमद से मत्त हो कर वारुणी का पान करके, अनेक स्त्रियों के साथ वे जल विहार कर रहे थे। तरह-तरह की क्रीड़ा कर रहे थे। नारद जी वहाँ से जा रहे थे। नारद जी को देखकर उन स्त्रियों ने वस्त्र धारण कर लिए परन्तु इन दोनों ने वस्त्र धारण नहीं किए। इन पर अनुग्रह करने की दृष्टि से ही नारद जी ने शाप दे दिया कि तुम लोग उन्मत्त होकर बड़ी जड़ता का काम कर रहे हो। जाओ तुम जड़ बन जाओ! जब तुम दोनों को भगवान का स्पर्श होगा तब तुम्हें मोक्ष मिल जाएगा। इसी से ये दोनों साथ-साथ ही वृक्ष बन गए। अब भगवान, यमलार्जुन वृक्ष बने उन दोनों का उद्धार करना चाहते हैं। वास्तव में यहाँ भगवान केवल भक्त की वाणी को सत्य सिद्ध करना चाहते हैं। वे सोचते हैं, नारद जी ने शाप देने के बाद पर अनुग्रह भी किया है, उनकी वाणी को सत्य करना है। इसलिए भगवान उन पेड़ों के पास जाते हैं। वे स्वयं तो उन दोनों वृक्षों के बीच से निकलकर आगे निकल जाते हैं पर साथ में बँधा हुआ वह बड़ा-सा ऊखल टेढ़ा होकर अटक जाता है। भगवान उसे खींच रहे हैं। जैसे ही भगवान ने उसे खींचा, वैसे ही वे दोनों पेड़ जड़ से उखड़कर नीचे गिर पड़े। उनमें से नलकूबर और मणिग्रीव, ये दोनों कुबेर पुत्र निकले। वे भगवान से प्रार्थना करते हैं, भगवान की स्तुति करते हैं कि हमसे बड़ी गलती हो गयी थी, लेकिन अब आपने हमें मुक्त कर दिया है। अब हम यही वर चाहते हैं कि-
हमारी वाणी आपका गुणानुकथन करती रहे। हमारे कान आपकी कथा सुनते रहें। हमारे हाथ आपकी सेवा करते रहें और मन आपके चरणों में लीन रहे। सिर आपके चरणों में झुक जाये और हमें सत्पुरुषों का दर्शन होता रहे। हम आपसे यही वर माँगते हैं। भगवान उनको इच्छित वरदान देते हुए कहते हैं- तथास्तु! तुम्हारा मन मुझ में लगा रहेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 10.10.38
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