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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
6.भरत जी का हिरन शावक में आसक्त होना
ऋषभदेव के बाद, उनके ज्येष्ठ तथा श्रेष्ठ पुत्र भरत ने राज्य सम्हाल लिया। परिव्राजक बनकर जाने के पूर्व ऋषभदेव ने अपने इस पुत्र का राज्याभिषेक कर दिया था। राजा भरत महाभागवत थे। उन्होंने बहुत अच्छी प्रकार से राज्य किया। फिर जैसी पूर्व परंपरा थी उसी के अनुरूप, वे भी राजपाट का त्याग कर वन में चले गए। घर से चलकर पहले उन्होंने पुलहाश्रम में निवास किया। और वहाँ पर केवल कंद मूल फल आदि का उपाहार करते हुए तपस्या में रत हो गए। उन्होंने विशेष रूप से सूर्य भगवान की उपासना की। इस प्रकार राज वैभव का त्याग कर वे वहाँ साधु वेश में रहने लगे। देखो, मन से कितना सावधान रहना चाहिये, यही बात अब यहाँ दर्शाई गई है। भरत गहरी साधना में रत थे। परन्तु एक दिन विघ्न आ ही गया। क्या? कैसा विघ्न? बहुत से अन्य प्रकार के तप आदि साधना करने वालों के जीवन में प्रायः कोई स्त्री आ जाती है विघ्न डालने के लिए। लेकिन यहाँ तो और ही बात हुई। एक दिन वे गण्डकी नदी तट पर प्रणव का जप करते हुए बैठे थे। एक हिरनी जो गर्भवती थी वहाँ पानी पी रही थी। तभी एक सिंह ने बड़ी जोर से गर्जना की, तो वह मृगी घबरा गई और घबराकर उसने एक छलांग लगायी। मृगी तो कूद गयी परन्तु कूदते समय उसका गर्भस्थ बच्चा पानी में गिर पड़ा। वह मृगी गिरकर वहीं मर गई। भरत को उस छोटे से हिरण शावक पर बड़ी दया आयी। हिरन तो वैसे भी देखने में सुन्दर होता है। तब छोटा-सा शावक तो कितना सुन्दर होगा। अब देखो उन्हें दया आयी, यह तो बहुत अच्छी बात है। वे नदी में कूद पड़े और उसे बचाकर ले आए। बोले - अब मुझे इसका भी पिता बनना पड़ेगा। और उसकी सेवा करने लगे। यहाँ तक भी, अच्छी बात है। लेकिन उनसे एक गलती हो गई। उस मृग को उन्होंने ‘मेरा’ मान लिया। देखो, अपने आपको तो उन्होंने भगवान के चरणों में अर्पित कर दिया परन्तु उस हिरन शावक को ‘मेरा है’ ऐसा मान लिया। यह भी कोई बात हुई? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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