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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
56.कालयवन का भस्म होना
कालयवन जो मथुरा को घेर कर बैठा था, वह बड़ा अजेय था। उसे यह वरदान प्राप्त था कि युद्ध में उसके सम्मुख जो भी आए, उसे भागना पड़ेगा। भगवान इस रहस्य को जानते थे। अतः बलराम जी से सलाह करके, उन्हें मथुरावासियों की रक्षा के लिए वहीं छोड़कर वे स्वयं कालयवन का सामना करने के लिए मथुरा के द्वार से बाहर निकल आए। कालयवन के सामने आते ही वे भाग गये। आध्यात्मिक दृष्टि से यह जरासन्ध जरा अवस्था है, जीवन का उत्तरार्ध है। यद्यपि अनेक रोगों के रूप में इसके पुनः-पुनः होने वाले आक्रमण से हमारी शरीर रूपी मथुरा नगरी क्षतिग्रस्त हो जाती है, उसके अवयव क्षीण होने लगते हैं, तथापि अनेक बार हम उसे पराजित करके उस पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। परन्तु जब वह काल रूपी कालयवन को साथ लेकर, उसे सामने करके आता है तब उससे नहीं लड़ा जा सकता। काल को पराजित करना हो तो उससे युद्ध किया जाता, काल के परे जाना पड़ता है। वह ब्रह्म विद्या से ही सम्भव है। उसके लिए ब्रह्म के द्वार द्वारका जाना पड़ता है। अतः सत्रह बार तो भगवान ने उसे हराकर लौटा दिया। अठारहवीं बार जब वह अपने मित्र कालयवन को पहले भेज कर आता है, तब भगवान उससे लड़ते नहीं, तब भगवान उस कालयवन से या जरासन्ध से युद्ध नहीं करते, तब वे युद्ध भूमि से भागकर मथुरा को छोड़ द्वारका में बस जाते हैं। अब इसका अर्थ यह मत समझ लेना कि भगवान डर के मारे भाग गये थे। भगवान को डर किस बात का? भगवान तो चतुराई करके भाग गए थे। देखो, यहाँ भगवान हमें सिखा रहे हैं कि किसी भी काम को तत्काल निबटा देना चाहिए। कालयवन ने भगवान को भागते देखा, तो वह स्वयं भी उनके पीछे भागने लगा। भागते-भागते भगवान उस गुफा में घुस गये जिसमें राजा मुचुकुन्द सो रहे थे। राजा मुचुकुन्द ने बहुत दिनों तक जगकर देवताओं की सहायता की थी। वे इतने थक गये थे कि देवताओं ने जब उनसे कहा कि आपको क्या वर चाहिए? तो उन्होंने कहा था, “मैं बहुत थक गया हूँ। अब तो मुझे नींद चाहिए, नींद में मुझे कोई परेशान न करे।” तब उन्हें यह वरदान प्राप्त हो गया था कि उनकी निद्रा में यदि कोई विघ्न डालता है, तो सर्वप्रथम उनकी दृष्टि जिस पर पड़े, वह जलकर भस्म हो जाए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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