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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
4.समुद्र-मन्थन
जब देवता लोग राजा बलि के पास पहुँचे तो इन्द्र देव ने उनके सामने अपना प्रस्ताव रखा। राजा बलि ने सुना, विचार किया और फिर बोले - ठीक है, चलो, प्रारम्भ करते हैं। दोनों के बीच सन्धि हो गयी, agreement (समझौता) भी हो गया। अब जड़ी-बूटी लाना तो इतना कठिन काम नहीं था। वह सब तो ले आये और समुद्र में डाल दिया। लेकिन मन्दराचल पर्वत को उठाकर लाना बहुत कठिन काम था। अब उन सब ने पर्वत को उठा तो लिया परन्तु उसे लेकर ज्यादा दूर तक चल नहीं पाए तो उन्होंने उसे रास्ते में ही पटक दिया। जब वह पर्वत उनके हाथ से छूटा तो कई देवता और असुर उसके नीचे दब कर मर गये, किसी के हाथ टूट गये, तो किसी के पाँव टूट गये, किसी का मुँह टेढ़ा हो गया। दूसरे लोग जो बचे रहे वे कहने लगे कि हम से तो नहीं होता, रहने दो इसे यहीं पर। तब सब लोग सोचने लगे कि अब क्या करें? भगवान इनको जानते हैं, वे यह भी जानते हैं कि इनसे स्वयं तो कुछ होगा नहीं। अतः गरुड़ पर बैठकर भगवान वहाँ आये, उन्होंने मन्दराचल को हथेली पर उठाया और वहाँ सब पर अपनी कृपा दृष्टि डाली तो सब-के-सब उठकर खड़े हो गये। देखो, भगवान की दृष्टि में अमृत है। सब-के-सब उठकर खड़े हुये। उनके हाथ-पैर जुड़ गये। सब स्वस्थ हो गए। भगवान गरुड़ पर सवार हो कर पर्वत को भी लेकर गये और उसे समुद्र में रख दिया। देवता लोग कहने लगे, “यह तो बहुत अच्छा हुआ।” फिर वासुकी नाग को बुलाया गया। भगवान का आदेश था इसलिये वह भी आ गया। उसे पर्वत पर लपेट दिया गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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