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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
59.रुक्मिणी जी का संदेश व उसका रहस्य
तब रुक्मिणी जी ने सोचा, ये लोग उन्हें नहीं बुलाते तो मैं ही बुला लेती हूँ। बड़ा साहस करके रुक्मिणी जी ने भगवान श्रीकृष्ण को संदेश भेजा- एक विश्वासपात्र ब्राह्मण के माध्यम से। ब्राह्मण देवता जब श्रीकृष्ण के पास पहुँचे तो पहले भगवान ने स्वयं उनका स्वागत-सत्कार किया, सेवा की, भोजन कराया, फिर उनसे आने का कारण पूछा। तब ब्राह्मण ने उन्हें रुक्मिणी जी का जो संदेश सुनाया वह इस प्रकार था-
“हे भुवन सुन्दर (देखो भुवन सुन्दर का क्या तात्पर्य होता है? जो त्रिभुवन में सबसे सुन्दर हो उसे कहते हैं भुवन सुन्दर या जिसके कारण त्रिभुवन को भी सुन्दरता प्राप्त हो वह) आपके गुण ऐसे हैं कि सुनने वालों के कर्ण के द्वार से हृदय में प्रविष्ट होकर, वे उनके सारे पाप ताप संताप को नष्ट कर देते हैं। आप का रूप ऐसा है कि उसे देखकर देखने वाले की दृष्टि सफल हो जाती है।” यहाँ ध्यान देने की बात है कि हमारी आँखें केवल दूरदर्शन या संसार के अन्य व्यक्ति या वस्तुओं को देखने के लिए नहीं बनी हैं। ये तो भगवान का दर्शन करने के लिए हैं; और भगवान का दर्शन हो सकता है। रुक्मिणी जी ने आगे कहा है, “आप के ऐसे रूप तथा गुणों का वर्णन सुनकर मेरा मन लज्जा संकोच त्यागकर पूर्णरूप से आप में ही समविष्ट हो रहा है, आप में ही रम रहा है।” फिर कहती हैं, “मैं ही नहीं वरन् ऐसी कौन सी धीर कुलवती कन्या होगी जो उचित समय आने पर, कुल, शील, रूप, विद्या, वय, धन, धाम आदि में अपने ही समान तथा सारे विश्व को रमाने वाले, आप का वरण न करे? इसलिए, मैंने आपका वरण किया है तो इसमें कोई अनुचित या अयोग्य बात नहीं है। मैंने स्वयं को आपके प्रति समर्पित कर दिया है। अतः आप यहाँ आकर मुझे अपनी पत्नि के रूप में स्वीकार कीजिए। मैं आपकी हूँ, कहीं वह शिशुपाल आकर मुझे ले न जाए। कहीं ऐसा न हो कि सिंह का भाग सियार ले जाए।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 10.52.37
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