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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
22.सर्वश्रेष्ठ मार्ग
इसके बाद भगवान यह बताते हैं कि सबसे उत्तम, सबसे श्रेष्ठ मार्ग कौन सा है।
श्री भगवान कहते हैं - अपने मन को मुझमें ही लगा देने से, मुझमें ही अर्पित कर देने से बढ़कर श्रेय का दूसरा कोई साधन नहीं है। क्योंकि जो भक्त ऐसा करते हैं उनकी आत्मा के रूप में मैं ही स्फुरित होता हूँ। अतः उन्हें जो अपने स्वरूप आनन्द की अनुभूति होती है उसे विषयी लोग भला क्या जानें? ऐसे जो भक्त होते हैं, उन्हें मेरे पीछे नहीं आना पड़ता, मैं स्वयं उनके पीछे-पीछे जाता रहता हूँ। कबीर दास जी ने भी यही कहा है। पहले कबीर जी राम-राम करते थे, बाद में राम जी कबीर-कबीर करते हुए उनके पीछे-पीछे जाते थे। भगवान कहते हैं, ”मैं ऐसे भक्तों के चरणों की धूल लेता हूँ।“ भक्ति ही श्रेय का सबसे बड़ा साधन है क्योंकि भक्ति से दोनों कार्य हो जाते हैं। पहले मन शुद्ध हेता और फिर परमात्मस्वरूप का बोध होता है। और जब भक्ति हृदय में आती है तब उस भक्त का कण्ठ गद्गद् हो जाता है, शरीर में रोमान्च होता है, चित्त द्रवित हो जाता है और आँखों से प्रेमाश्रु बहने लगते हैं।
ऐसा भक्त मात्र अपने आपको ही नहीं वरन् इस निखिल भुवन को भी पवित्र कर देता है। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक मन शुद्ध नहीं होता। इस बात को भगवान ने यहाँ स्पष्ट रूप से बता दिया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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