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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
6.ययाति-चरित्र
ययाति के चरित्र में समझने योग्य बात यह है कि वह महाभोगी राजा था, उसने खूब भोग किया लेकिन उसकी भोग की इच्छा कभी तृप्त नहीं हुई। वह स्त्री में अति आसक्त था। एक दिन देवयानी क्रोधित होकर उसे छोड़कर चली गयी। ज्यादा विस्तार की आवश्यकता नहीं, यहाँ हम अपने काम की बात को ही देखेंगे। वह अपने पिता शुक्राचार्य के पास गई। शुक्राचार्य जी भी बहुत क्रोधित हो गए और उन्होंने ययाति को शाप दे दिया कि उसे बुढ़ापा आ जाये। उनको बुढ़ापा आ गया और वे व्याकुल हो गये कि मेरी कामवासना तो पूरी हुई नहीं और मैं बूढ़ा हो गया, अब मैं क्या करूँ? वे शुक्राचार्य से कहने लगे- आप ने मेरे साथ अन्याय किया है। मेरी भोग की इच्छा तो पूरी हुई नहीं और आपने मुझे बूढ़ा कर दिया। तब शुक्राचार्य जी ने कहा, “अच्छा तुम्हारे चार लड़के हैं। उनमें से कोई तुम्हारा बुढ़ापा लेने के लिए तैयार हो तो उसकी युवावस्था तुम प्राप्त कर सकते हो।” दूसरे लड़के तो तैयार नहीं हुए, परन्तु उनका सबसे छोटा लड़का तैयार हुआ। उसने कहा कि मैं अपनी युवावस्था देने को तैयार हूँ, आप मुझे अपना बुढ़ापा दे दीजिये। देखो ययाति की कामवासना कितनी प्रबल थी, उसने अपने लड़के को बुढ़ापा दे दिया, उसकी युवावस्था ले ली और खूब भोग किया। इतना भोग करने के बाद भी उसे संतोष नहीं हुआ। लेकिन अन्ततः एक दिन उसे यह बात समझ में आ ही गई कि-
कामनाओं को तृप्त करते रहने से कामनाएँ कभी पूरी नहीं होती हैं। इच्छाओं को जितना ही पूर्ण किया जाए वे उतनी ही बढ़ती जाती हैं। यह हम सबका अनुभव है। जैसे धूम्रपान करने वाला सोचता है कि यह अंतिम बार है इसके बाद मैं नहीं करूँगा। इसी प्रकार पीने वाला सोचता है कि मैं आखिरी बार शराब पीने वाला हूँ। चाय पीने वाला सोचता है कि अब मैं चाय छोड़ने वाला हूँ। इसलिए आखिरी कप चाय पी लेता हूँ गिलास भरकर ले आओ। आखिरी बार कभी नहीं आता। किसी चीज को छोड़ना हो तो अभी, इसी क्षण छोड़ दो, तो छूट जाएगा, अन्यथा आगे भी नहीं छोड़ पाओगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 9.19.14
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