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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
9.भवाटवी का निरूपण
अब आगे एक भवाटवी का वर्णन करते हैं, रूपक की भाषा में। उसी का स्पष्टीकरण अगले अध्याय में किया गया है। उसका सार इतना ही है कि भवाटवी - ‘अटवी’ मानें जंगल और ‘भव’ माने संसार, तो संसार रूपी जंगल में यह सारा-का-सारा एक काफिला एक समूह, व्यापारियों का दल भटक रहा है। इसमें हम सब रिश्ते-नाते वाले जा रहे हैं। जाते-जाते जंगल में कहीं पर आग लग जाती है, तो कहीं पर भ्रांति होती है, कहीं पर ओले पड़ते हैं, तो कहीं बारिश होती है। जंगली प्राणी आते हैं, गड्ढे आते हैं, कहीं पर खाई आती है, कहीं पर्वत भी आ जाता है और हम जाते रहते हैं। जैसे जंगल में जो यात्री काफिला लेकर जाते हैं उनके सामने ये सारी कठिनाइयाँ आती हैं। वे आपस में कभी लड़ते हैं, कभी झगड़ते हैं, कभी प्यार भी कर लेते हैं। फिर इसकी लड़की उसको देते हैं, उसका विवाह इसके साथ करते हैं, गाते बजाते हैं, कोई मर गया तो रो भी लेते हैं। सब चलता रहता है। बोले यही भवाटवी है। इस संसार के जंगल में हम सब लोग इसी प्रकार से घूम रहे हैं। आज इससे मिले तो कल उससे बिछड़ गये। हमारा जीवन इसी प्रकार चलता रहता है। आज इसकी शादी उसके साथ हुई, तो कल वह उसके साथ खुश नहीं है। उसने इसको छोड़ दिया इसने उसको छोड़ दिया आदि आदि। सारा खेल चल रहा है। कब तक? कभी जब दैव से पुण्य कर्म उदित हो जाएँ तब सत्संग प्राप्त होता है। फिर सत्संग से सारा-का-सारा मोह दूर हो जाता है। अन्यथा मोह दूर होता नहीं और इस संसार रूपी जंगल में हम भटकते ही रह जाते हैं। काम-क्रोध आदि के जितने बड़े-बड़े पर्वत कहो, खाई कहो, जंगली पशु कहो, वे सब हमको खा जाते हैं। एक सत्संग ही हमारे लिए यहाँ से निकलने का रास्ता है। इस प्रकार रहूगण को उपदेश देकर भरत जी स्वयं वहाँ से चले जाते हैं। वे तो मुक्तात्मा हो गये थे। रहूगण भी उनके उपदेश को ग्रहण करके ध्यानाभ्यास के द्वारा अपने आपको बन्धन से मुक्त कर लेते हैं। उन्होंने महात्मा भरत को नमस्कार किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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